सदाचारी :!
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == सदाचारी : == वायाए अकहंता सुजणे, चरिदेहि कहियगाा होंति। —भगवती आराधना : ३६६ श्रेष्ठ पुरुष अपने गुणों को वाणी से नहीं, किन्तु सच्चरित्र से ही प्रकट करते हैं।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == सदाचारी : == वायाए अकहंता सुजणे, चरिदेहि कहियगाा होंति। —भगवती आराधना : ३६६ श्रेष्ठ पुरुष अपने गुणों को वाणी से नहीं, किन्तु सच्चरित्र से ही प्रकट करते हैं।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == साधक : == बाह्यमूघ्र्वमादाय, नावमाकांक्षेत् कदाचित् अपि। पूर्वकर्मक्षयार्थाय, इमं देहं समुद्धरेत्।। —समणसुत्त : ५६८ ऊध्र्व अर्थात् मुक्ति का लक्ष्य रखने वाला साधक कभी भी बाह्य विषयों की आकांक्षा न रखे। पूर्वकर्मों का क्षय करने के लिए ही इस शरीर को धारण करे। चरेत्पदानि परिशंकमान:, यत्कििंचत्पाशमिह मन्यमान:। लाभान्तरे जीवितं…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार]] [[ श्रेणी:शब्दकोष]] == कायोत्सर्ग : == दैवसिकनियमादिषु, यथोक्तमानेन उक्तकाले। जिनगुणचिन्तनयुक्त:, कायोत्सर्गस्तनुविसर्ग:।। —समणसुत्त : ४३४ दैनिक प्रतिक्रमण के नियमानुसार यथोचित समयावधि (२७ श्वासोच्छ्वास) तक जिनप्रभु के गुणों का चिन्तन करते हुए शरीर की ममता को छोड़ देना कायोत्सर्ग है। देहमति: जाड्यशुद्धि: सुखदु:ख—तितिक्षता अनुप्रेक्षा। ध्यायति च शुभं ध्यानम् एकाग्र: कायोत्सर्गे।। —समणसुत्त : ४८१ कायोत्सर्ग करने…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == जिन : == केवलज्ञान—दिवाकर—किरण—कलाप—प्रणाशिताज्ञान:। नवकेवललब्ध्युद्गम—प्रापित—परमात्मव्यपदेश:। असहायज्ञानदर्शन—सहितोऽपि हि केवली हि योगेन। युक्त इति सयोगिजिन:, अनादिनिधन आर्षे उक्त:।। —समणसुत्त : ५६२-५६३ केवलज्ञान रूपी दिवाकर की किरणों के समूह से जिनका अज्ञान अंधकार सर्वथा नष्ट हो जाता है तथा नौ केवललब्धियों (सम्यक्त्व, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य, दान, लाभ, भोग व उपभोग)…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == धर्मास्तिकाय : == धर्मास्तिकायोऽरतो—ऽवर्णगन्धोऽशब्दोऽस्पर्श:। लोकावगाढ: स्पृष्ट:, पृथुलोऽसंख्यातिकप्रदेश:।। —समणसुत्त : ६३१ धर्मास्तिकाय रसरहित है, रूपरहित है, गंधरहित है और शब्दरहित है। समस्त लोकाकाश में व्याप्त है, अखण्ड है और विशाल है तथा असंख्यातप्रदेशी है। उदकम् यथा मत्स्यानां, गमनानुनुग्रहकरं भवति लोके। तथा जीवपुद्गलानां, धर्मद्रव्यं विजानीहि। —समणसुत्त : ६३२ जैसे इस…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == मानी : == योऽपमानकरणं दोषं, परिहरति नित्यमायुक्त:। सो नाम भवति मानी, न गुणत्यक्तेन मानेन।। —समणसुत्त : ८९ जो दूसरे को अपमानित करने के दोष का सदा सावधानीपूर्वक परिहार करता है, वही यथार्थ में मानी है। गुणशल्य अभिमान करने से कोई मानी नहीं होता।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == लेश्या : == योगप्रवृत्तिर्लेश्या, कषायोदयानुरंजिता भवति। तत: द्वयो: कार्यं, बन्धचतुषक् समुद्दिष्टम्।। —समणसुत्त : ५३२ कषाय के उदय से अनुरंजित मन—वचन—काय की योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। इन दोनों अर्थात् कषाय और योग का कार्य है चार प्रकार का कर्म—बन्ध। कषाय से कर्मों की स्थिति और अनुभाग बन्ध…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == शरण : == ज्ञानं शरणं मम, दर्शनं च शरणं च चारित्र शरणं च। तप: संयमश्च शरणं, भगवान् शरणो महावीर:।। —समणसुत्त : ७५० ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और संयम मेरे लिए शरण हैं। भगवान् महावीर मेरे लिए शरण हैं।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == संघ : == संघो गुणसंघात:, संघश्च विमोचकश्चकर्मणाम्। दर्शनज्ञानचरित्राणि, संघातयन् भवेत् संघ:।। —समणसुत्त : २५ गुणों का समूह संघ है। संघ कर्मों का विमोचन करने वाला है। जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र का संघात (रत्नत्रय की समन्विति) करता है, वह संघ है। कर्मरजजलौघविनिर्गतरस्य, श्रुतरत्नदीर्घनालस्य। पंचमहाव्रतस्थिरर्किणकस्स, गुणकेसरवत:।। श्रावकजन—मधुकर—परिवृतस्य, जिनसूर्यतेजोबुद्धस्य। संघपद्मस्य…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == सद्गति : == समणं भट्ठचरित्तं ण हु सक्को सुग्गइं णेदुं। —मूलाचार, समयसराधिकार : १४ चारित्र से भ्रष्ट होने वाला श्रमण सद्गति प्राप्त करने में समर्थ नहीं।