सोलहकारण भावनाएँ (षट्खण्डागम ग्रंथ के आधार से) दिगम्बर जैन परम्परा में ‘षट्खण्डागम ग्रंथ’ सिद्धान्त के सर्वोपरि ग्रंथ माने हैं। इस षट्खण्डागम में छह खण्डों के-१. जीवस्थान, २. क्षुद्रकबंध, ३. बंधस्वामित्वविचय, ४. वेदनाखण्ड, ५. वर्गणाखण्ड और ६. महाबंध, ये नाम हैं। इनमें से षट्खण्डागम का जो तृतीय खण्ड है-‘‘बंधस्वामित्वविचय’’ इस ग्रंथ में जीव के साथ कर्मों…
इसमें बताया गया हैं कि जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करने से अनतानंत उपवासों का फल मिलता हैं |
श्री ऋषभदेव के पुत्र ‘भरत’ से ‘भारत’ तीर्थंकर ऋषभदेव राज्यसभा में सिंहासन पर विराजमान थे, उनके चित्त में विद्या और कला के उपदेश की भावना जाग्रत हो रही थी। इसी बीच में ब्राह्मी और सुंदरी दोनों कन्याओं ने आकर पिता को नमस्कार किया। पिता ने आशीर्वाद देते हुये बड़े प्यार से दोनों कन्याओं को अपनी…
श्री गौतमस्वामी स्तुति: (सप्तविभक्ति समन्वित) श्री गौतम: पिता लोके, इंद्रभूतिश्च नामभाक्। श्रीगौतमं नुता: सर्वे, इन्द्राद्या भक्तिभावत:।।१।। श्रीगौतमेन सज्ज्ञानं, प्राप्तं वीरस्य दर्शनात्। श्रीगौतमाय मे नित्यं, नमो जन्मप्रहाणये।।२।। श्रीगौतमात् प्रभोर्दिव्य-ध्वनिसार: सुलभ्यते। श्रीगौतमस्य सद्भक्त्या, तरिष्यामि भवांबुधिं।।३।। श्रीगौतमे द्विदशांगी, वाणी प्रस्फुरिता त्वरं। श्रीगौतमगुरो! स्वामिन्!, मां त्राहि भवक्लेशत:।।४।। कुन्दकुन्द स्वामी की वन्दना श्रीकुन्दकुन्दयोगीन्द्रं, नौमि भक्त्या विधा मुदा। मन:कुंदप्रसूनं मे, तत्क्षणं…
श्री सरस्वती स्तुति: (सप्तविभक्ति समन्वित) सरस्वती जगन्माता, जिनवक्त्राम्बुजा सती। सरस्वती-मुपासन्ते, भक्त्या सर्वे मुनीश्वरा:।।१।। सरस्वत्या भुक्तिं मुक्तिं, प्राप्नुवन्त्यपि भाक्तिका:। सरस्वत्यै नमस्तुभ्यं, नमस्तुभ्य-मनन्तश:।।२।। सरस्वत्या: बुधा: भेद-ज्ञानमप्याप्नुवन्ति च। सरस्वत्या: प्रसादेन, तरन्ति भवसागरम्।।३।। सरस्वत्यां मतिं धृत्वाऽ-हर्निशं स्वात्मचिन्तनम्। सरस्वति! प्रसीद त्वं, मामनुगृह्य पालय।।४।। केवलज्ञान लक्ष्मी माता की वंदना केवलज्ञानरूपा या, लक्ष्मी: हस्तांबुजांबिका। तस्यै नमोऽस्तु मे नित्यं, ज्ञानज्योति: प्रयच्छ मे।।१।।
श्री तीस चौबीसी नामावली स्तुति -शंभु छंद- सिद्धी को प्राप्त हुए होते, होवेंगे भरतैरावत में। ये भूत भवद् भावी जिनवर, मेरे भी रक्षक हों जग में।। इस मध्यलोक के मध्य प्रथित, वर जम्बूद्वीप प्रमुख जानो। उसके दक्षिण में भरत तथा, उत्तर में ऐरावत मानो।।१।। पूरब औ अपर धातकी खंड, द्वीप में दक्षिण उत्तर में। दो…
तीस चौबीसी स्तुति-(संस्कृत) सिद्धिं प्राप्ताश्च प्राप्स्यंति, भूता सन्तश्च भाविन:। भरतैरावतोद्भूतास्तीर्थंकरा अवंतु मां।।१।। जंबूद्वीपेऽत्र विख्याते, मध्यलोकस्य मध्यगे। भरतो दक्षिणे भागे, उदीच्यैरावतो मत:।।२।। पूर्वस्मिन् धातकीद्वीपेऽपरधात्र्यामपि त्विमौ। भरतैरावतौ द्वौ द्वौ, दक्षिणोत्तर भागिनौ।।३।। पूर्वार्धपुष्करेप्येवं, पश्चिमार्धे तथेदृशौ। भरतैरावते क्षेत्रे, अपागुदग्दिशोश्च ते।।४।। पंच भरतक्षेत्राणि, पंचैवैरावतान्यपि। दशैषामार्यखंडेषु, षट्कालपरिवर्तनं।।५।। चतुर्थेऽप्यागते काले चतुर्विंशतयोर्जिना:। तीर्थेश्वरा: भवंतीह, धर्मतीर्थप्रवर्तका:।।६।। भूतकाले भवा एते, वर्तमानेऽप्यनागते। भवंति च भविष्यंति, तेभ्यो…
त्रैलोक्य वंदनाष्टक (चैत्यवंदनाष्टक) त्रिभुवन के जितने चैत्यालय, अकृत्रिम उनको नित वंदूँ। भव भव के संचित पाप पुंज, उन सबको इक क्षण में खंडूँ।। असुरों के चौंसठ लाख नागसुर, के चौरासी लाख कहे। वायूसुर के छ्यानवे लाख, सुपरण के बहत्तर लक्ष कहें।।१।। विद्युत् अग्नी स्तनित उदधि, दिक् द्वीपकुमार भवनवासी। इन छह में पृथक्-पृथक् जिनगृह, छीयत्तर लक्ष…