अणुव्रत :!
[[श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार]] == अणुव्रत :== प्राणिवधमृषावादा दत्तपरदारनियमनैश्च। अपरिमितेच्छातोऽपि च, अणुव्रतानि विरमणानि।। —समणसुत्त : ३०९ हिन्सा, असत्य, चोरी, परस्त्रीगमन और असीम इच्छा, इन पापों का त्याग करना अणुव्रत है।
[[श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार]] == अणुव्रत :== प्राणिवधमृषावादा दत्तपरदारनियमनैश्च। अपरिमितेच्छातोऽपि च, अणुव्रतानि विरमणानि।। —समणसुत्त : ३०९ हिन्सा, असत्य, चोरी, परस्त्रीगमन और असीम इच्छा, इन पापों का त्याग करना अणुव्रत है।
[[श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार]] ==अज्ञानी :== जो अप्पणा दु मण्णदि दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्तेति। सो मूढो अण्णाणी, णाणी एत्तो दु विवरीदो।। —समयसार : २५३ ‘जो ऐसा मानता है कि मैं दूसरों को दु:खी या सुखी करता हूँ’, वह वस्तुत: अज्ञानी है। ज्ञानी ऐसा कभी नहीं मानते। अनुशोचत्यन्यजनमन्यभवान्तरगतं तु बालजन:। नैव शोचत्यात्मानं, क्लिश्यमानं भवसमुद्रे।। —समणसुत्त : ५१८ अज्ञानी मनुष्य अन्य…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] == आलसी : == अलस: सर्वकर्मणामनधिकारी। —नीतिवाक्यामृत :१०-१४४ आलसी व्यक्ति सब कार्यों के लिए अयोग्य होता है।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] == उपदेशक : == धर्मे धर्मोपदेष्टार:, साक्षिमात्रं शुभात्मनाम्। —त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् : २-३ धर्मात्माओं को धर्म में प्रेरित करने के लिए उपदेशक तो साक्षि—मात्र ही होते हैं।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] == आसक्त : == महिलाकरेणुयाणं, लुद्धो घरवाहि—नियल—पडिवद्धो। अणुहवइ तत्थ दुक्खं पुरिसगओ बम्महासत्तो।। —पउमचरिउ : ५६६ स्त्री रूपी हथिनियों से लुब्ध, घरबार रूपी जंजीरों से जकड़ा हुआ और काम में आसक्त पुरुष रूपी गज जीव संसार में दु:ख अनुभव करता है।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] == उत्पाद—व्यय—ध्रौव्य : == न भवो भंगविहीनो, भंगो वा नास्ति सम्भवविहीन:। उत्पादोऽपि च भंगो, न विना ध्रौव्येणार्थेन।। —समणसुत्त : ६६३ उत्पाद व्यय के बिना नहीं होता और व्यय उत्पाद के बिना नहीं होता। इसी प्रकार उत्पाद और व्यय दोनों त्रिकाल स्थायी ध्रौव्य अर्थ (आधार) के बिना नहीं होते। उत्पादस्थितिभंगा, विद्यन्ते पर्यायेषु पर्याया:।…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] == आत्मशक्ति : == तारा नक्षत्र ग्रह चंद्रनी, ज्योति दिनेष मोसार रे। दर्शन—ज्ञान—चरण थकी, शक्ति निजताम धार रे।। —आनंदघन ग्रंथावली १५३ जिस प्रकार सूर्य में तारों, नक्षत्रों, ग्रहों और चंद्रमा की ज्योति अन्तर्भूत हो जाती है, उसी तरह आत्मा में भी दर्शन—ज्ञान—चारित्र गुण की शक्ति अन्र्तिनहित है।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] == एकांत : == णाणं किरियारहियं, किरियामेत्तं च दोवि एगंता। —सन्मतिप्रकरण : ३-६८ क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया, दोनों ही एकांत हैं। अर्थात् जैन दर्शन सम्मत नहीं है।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार]] == उपाध्याय : == अज्ञानघोरतिमिरे, दुरन्ततीरेहिण्डमानानाम्। भव्यानाम् उद्योतकरा, उपाध्याय वरमिंत ददतु।। —समणसुत्त : १० जिसका ओर—छोर पाना कठिन है, उस अज्ञान रूपी घोर अंधकार में भटकने वाले भव्य जीवों के लिए, ज्ञान का प्रकाश देने वाले उपाध्याय मुझे उत्तम मति प्रदान करें।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] == इन्द्रिय—विषय : == सुष्ठ्वपि माग्र्यमाण:, कुत्रापि कदल्यां नास्ति यथा सार:। इन्द्रियविषयेषु तथा, नास्ति सुखं सुष्ठ्वपि गवेषितम्।। —समणसुत्त : ४७ बहुत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार नहीं दिखाई देता, वैसे ही इन्द्रिय–विषयों में भी कोई सुख दिखाई नहीं देता।