समरंभ!
[[श्रेणी:शब्दकोष]] समरंभ-प्रमादी जीवों का प्राणों की हिंसा आदि कार्य में प्रयत्नशील होना समरंभ है”
[[श्रेणी:शब्दकोष]] समरंभ-प्रमादी जीवों का प्राणों की हिंसा आदि कार्य में प्रयत्नशील होना समरंभ है”
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == हिंसा : == न हि तद्घातनिमित्तो, बन्धो सूक्ष्मोऽपि देशित: समये। मूच्र्छा परिग्रह: इति च, अध्यात्मप्रमादतो भणित:।। —समणसुत्त : ३९२ जैसे अध्यात्म (शास्त्र) में मूच्र्छा को ही परिग्रह कहा गया है, वैसे ही उसमें प्रमाद को हिंसा कहा गया है। एदे पंचपओगा किरियाओ होंति हिंसाओ। —भगवती आराधना : ८०७…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == स्वाध्याय : == पूजादिषु निरपेक्ष:, जिनशास्त्रं य: पठति भक्त्या। कर्ममलशोधनार्थं, श्रुतलाभ: सुखकर: तस्य।। —समणसुत्त : ४७६ आदर—सत्कार की अपेक्षा से रहित होकर जो कर्मरूपी मल को धोने के लिए भक्तिपूर्वक जिनशास्त्रों को पढ़ता है, उसका श्रुत—लाभ स्व—पर सुखकारी होता है।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == स्व-पर : == परद्रव्यात् दुर्गति:, स्वद्रव्यात् खलु सुगति: भवति। इति ज्ञात्वा स्वद्रव्ये, कुरुत रिंत विरतिम् इतरस्मिन्।। —समणसुत्त : ५८७ परद्रव्य अर्थात् धन—धान्य, परिवार व देहादि में अनुरक्त होने से दुर्गति होती है और स्वद्रव्य अर्थात् अपनी आत्मा में लीन होने से सुगति होती है। ऐसा जानकर स्वद्रव्य में…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == स्यद्वाद : == सप्तैव भवन्ति भंगा, प्रमाणनयदुर्नयभेदयुक्ता अपि। स्यात् सापेक्षं प्रमाण:, नयेन नया दुर्नया निरपेक्षा:।। —समणसुत्त : ७१६ (अनेकान्तात्मक वस्तु की सापेक्षता के प्रतिपादन में प्रत्येक वाक्य के साथ ‘स्यात्’ लगाकर कथन करना स्याद्वाद का लक्षण है।) इस न्याय में प्रमाण, नय और दुर्नय के भेद से युक्त…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == स्यात् : == नियमनिषेधनशीलो निपातनाच्च य: खलु सिद्ध:। स स्याच्छब्दो भणित:, य: सापेक्षं प्रसाधयति।। —समणसुत्त : ७१५ जो सदा नियम का निषेध करता है और निपात रूप से सिद्ध है, उस शब्द को ‘स्यात्’ कहा गया है। यह वस्तु को सापेक्ष सिद्ध करता है।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == स्नेह : == नियलेहि पुरिओ च्चिय वच्चइ पुरितो जहिच्छियं देसं। एक्कं पि अंगुलमिणं, न जाइ घणनेह—पडिबद्धो।। —पउमचरिउ : ५६९ जंजीरों से बंधा हुआ मनुष्य इच्छानुसार देश में जा सकता है, पर घने स्नेह से जकड़ा हुआ मनुष्य एक अंगुल भी नहीं जा सकता।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == स्कन्ध : == द्विप्रदेशादय स्कन्धा: सूक्ष्मा वा बादरा: संस्थाना:। पृथिवीजलतेजोवायव:, स्वकपरिणामैर्जायन्ते।। —समणसुत्त : ६५३ द्विप्रदेशी आदि सारे सूक्ष्म और बादर (स्थूल) स्कनध अपने परिणमन के द्वारा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के रूप में अनेक आकार वाले बन जाते हैं। अवगाढगाढनिचित: पुद्गलकायै: सर्वतो लोक:। सूक्ष्मैबार्दरैश्चाप्रायोग्यै:।। —समणसुत्त : ६५४ यह…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == सेना : == कार्यकृद् गृह्यको जन:। —त्रिषष्टिशलाका : १-१-९०८ जो कार्य (सेवा) करता है, लोग उसे पूजते ही हैं।