सदाचारी :!
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == सदाचारी : == वायाए अकहंता सुजणे, चरिदेहि कहियगाा होंति। —भगवती आराधना : ३६६ श्रेष्ठ पुरुष अपने गुणों को वाणी से नहीं, किन्तु सच्चरित्र से ही प्रकट करते हैं।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == सदाचारी : == वायाए अकहंता सुजणे, चरिदेहि कहियगाा होंति। —भगवती आराधना : ३६६ श्रेष्ठ पुरुष अपने गुणों को वाणी से नहीं, किन्तु सच्चरित्र से ही प्रकट करते हैं।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == सत्संग : == धुनोति दवयुं स्वान्तात्तनोत्यानंदथुं परम्। धिनोति च मनोवृत्तिमहो साधु—समागम:।। —आदिपुराण : ९-१६० साधु पुरुष का समागम मन से संताप को दूर करता है, आनन्द की वृद्धि करता है और चित्तवृत्ति को संतोष देता है।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == सत्यवादी : == विश्वसनीयो मातेव, भवति पूज्यो गुरुरिव लोकस्य। स्वजन इव सत्यवादी, पुरुष: सर्वस्य भवति प्रिय:।। —समणसुत्त : ९५ सत्यवादी पुरुष माता की तरह विश्वसनीय, जनता के लिए गुरु की तरह पूज्य और स्वजन की भाँति सबको प्रिय होता है।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == सत्य : == अकिंहतस्स वि जह गहवइणो जगविस्सुदो तेजो। —भगवती आराधना : ३६१ अपने तेज का बखान नहीं करते हुए भी सूर्य का तेज स्वत: जगविश्रुत है। सच्चं जसस्स मूलं, सच्चं विस्सासकारणं परमं। सच्चं सग्गद्दारं सच्चं, सिद्धीइ सोपाणं।। —धर्मसंग्रह टीका : २-२६ सत्य यश का मूल कारण है।…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == सत्पुरुष : == दट्ठूण अण्णदोसं, सप्पुरिसो लज्जिओ सयं होइ। —भगवती आराधना : ३७२ सत्पुरुष दूसरे के दोष देखकर स्वयं में लज्जा का अनुभव करता है। (वह कभी उन्हें अपने मुंह से नहीं कह पाता)।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == सज्जन-दुर्जन : == सुजणो वि होइ लहुओ, दुज्जणसंमेलणाए दोसेण। माला वि मोल्लगरुया, होदि लहू मउयसंसिट्ठा।। —भगवती आराधना : ३४५ दुर्जन की संगति करने से सज्जन का महत्व गिर जाता है, जैसे कि मूल्यवान माला मुर्दे पर डाल देने से निकम्मी—तुच्छ, त्याज्य हो जाती है। सरिसे वि मणुयजन्मे डहइ…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == सज्जन : == सम्माणेसु परियणं पणइयणं पेसवेसु मा विमुहं। अणुमण्णह मित्तयणं सुपुरिसमग्गो फूडो एसो।। —कुवलयमाला: ८५ परिजनों का सम्मान करो, प्रेमीजनों के प्रति उपेक्षा मत करो और मित्रजनों का अनुमोदन करो, यही सज्जनों का सही मार्ग है। थेवं पि खुडइ हियए अवमाणं सुपुरिसाण विमलाणं। वाया लाइय—रेणुं पि पेच्छ…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == संसार : == धिक् संसारं यत्र, युवा परमरूपर्गिवतक:। मृत्वा जायते, कृमिस्तत्रैव कलेवरे निजके।। —समणसुत्त : ५११ इस संसार को धिक्कार है, जहाँ परम रूप-र्गिवत युवक मृत्यु के बाद अपने उसी त्यक्त मृत शरीर में कृमि के रूप में उत्पन्न हो जाता है। न नास्तीहावकाशो, लोके बालाग्रकोटिमात्रोऽपि। जन्ममरणबाधा, अनेकशो…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == संशय : == जे किर किसीवलाई फलसंसईणो किसिं बिलंबंति। अविकलकारणभावे वि सस्सभागी न ते हुंति।। एवमणुट्ठाणमिणं फलसंसयगब्भिणं पकुव्वंता। दुक्करयं पि हु तप्फला विवज्जिया ते विसीयंति।। —कहारयणकोष : ६-७ जो लोग किसान हैं, वे फल में संशय रखते हुए यदि कृषि कर्म में विलम्ब करते हैं तो वे अविकल…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == संवर : == सर्वभूतात्मभूतस्य, सम्यक् भूतानि पश्यत:। पिहितास्रवस्य दान्तस्य, पापं कर्म न बध्यते।। —समणसुत्त : ६०७ जो समस्त प्राणियों को आत्मवत् देखता है और जिसने कर्मास्रव के सारे द्वार बंद कर दिए हैं उस संयमी को पापकर्म का बंध नहीं होता। तपसा चैव न मोक्ष:, संवरहीनस्य भवति जिनवचने।…