अड़तालीस दीक्षान्वय क्रियाएँ इन उपर्युक्त त्रेपन क्रियाओं में से प्रारंभ की तेरह क्रियाएँ निकाल दीजिए तथा अवतार आदि आठ क्रियाएँ मिला दीजिए, तब अड़तालीस हो जाती हैं, यथा ५३-१३·४०, ४०±८·४८। उन आठ क्रियाओं के नाम-अवतार, वृत्तलाभ, स्थानलाभ, गणग्रह, पूजाराध्य, पुण्ययज्ञ, दृढ़चर्या और उपयोगिता। अवतार क्रिया – मिथ्यात्व से दूषित हुआ कोई भव्यपुरुष जब समीचीन मार्ग…
जिन पूजा पद्धति —मुनिश्री क्षमासागर जी महाराज जिन—अभिषेक और जिनपूजा, मंदिर की आध्यात्मिक प्रयोगशाला के दो जीवंत प्रयोग हैं। भगवान की भव्य प्रतिमा को निमित्त बनाकर उनके जलाभिषेक से स्वयं को परमपद में अभिषिक्त करना अभिषेक का प्रमुख उद्देश्य है। पूजा, जिन—अभिषेकपूर्वक ही संपन्न होती है, ऐसा हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा श्रावक को उपदेश दिया गया…
कर्मबंध के भेद कषाय सहित जीव जो कर्म पुद्गलों को ग्रहण करता है, वह बंध है। इसके चार भेद हैं – प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध। कर्मों का ज्ञानादि के ढकने का स्वभाव होना प्रकृतिबंध है। कर्मों मे आत्मा के साथ रहने की मर्यादा स्थितिबंध है। कर्मोें में तीव्र-मंद आदि फल देने की शक्ति अनुभाग…
काल चक्र षट्काल परिवर्तन प्रथम काल सुषमा-सुषमा काल में भूमि रज, धूम, अग्नि, हिम, कण्टक आदि से रहित एवं शंख, बिच्छू, चींटी, मक्खी आदि विकलत्रय जीवों से रहित होती है। दिव्य बालू, मधुर गंध से युक्त मिट्टी और पंचवर्ण वाले चार अंगुल ऊँचे तृण होते हैं। वहाँ वृक्ष समूह, कमल आदि से युक्त निर्मल जल…
कहीं आपको नजर तो नहीं लगी आज व्यक्ति दृष्टि को नहीं सृष्टि को बदलना चाहता है, किन्तु सृष्टि को आजतक न तो कोई बदल सका है और न कोई बदल सकेगा। सृष्टि, दृष्टि पर आधारित है। दृष्टि सम्यक है तो सृष्टि भी सम्यक होगी और मिथ्या दृष्टि के लिये तो सृष्टि भी मिथ्या ही होती…
महाभारत इसी कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में परम्परागत कुरुवंशियों का राज्य चला आ रहा था। उन्हीं में शांतनु नाम के राजा हुए उनकी ‘सबकी’ नाम की रानी से ‘पराशर’ नाम का पुत्र हुआ। रत्नपुर नगर के जन्हु नामक विद्याधर राजा की ‘गंगा’ नाम की कन्या थी। विद्याधर राजा ने पराशर के साथ गंगा का…
टीकाकर्त्री की प्रशस्ति किसी भी ग्रंथकर्ता और गंरथ के परिचय के लिए प्रषस्ति का बहुत महत्व होता है। इसमें ग्रंथ लेखन का अपेक्षित इतिवृत्त, ग्रंथकर्ता का जीवन, तत्कालीन परिस्थिति, द्रव्य क्षेत्र काल भाव आदि का भी समावेष होता है। मुझे स्याद्वाद चन्द्रिका की कर्त्री पू० आर्यिका ज्ञानमती जी द्वारा लिखित प्रषस्ति का आषय यहां प्रस्तुत…
Barah-Bhavna (Tune – Chalat Musafir Moh liye Re……) I’m praying to you Jinvar deva! I’m praying to you Praying to you, I’m saying to you-2 I’m praying to you Jinvar deva. I’m…. I did not know about my soul, I could not think about myself. So tell me that path deva……. I’m praying to…
‘खानदान-शुद्धि’ शब्द नहीं, सिद्धान्त है -प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश जैन, फिरोजाबाद (उ.प्र.) कालचक्र सदैव गतिशील रहता है । जैनागम के अनुसार काल के दो विभाग हैं-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी। प्रत्येक विभाग के छह-छह भेद हैं ।। अवसर्पिणी काल का पहिया सुख से दु:ख की ओर तथा उत्सर्पिणी का दु:ख से सुख की ओर घूमता है । वर्तमान…