चौदह गुणस्थान बीस प्ररूपणाओं द्वारा अथवा बीस प्रकरणों का आश्रय लेकर यहाँ जीवद्रव्य का प्ररूपण किया जाता है। ‘‘जीवट्ठाण’’ नामक सिद्धांतशास्त्र में अशुद्ध जीव के १४ गुणस्थान, १४ मार्गणा और १४ जीवसमास स्थानों का जो वर्णन है वही इसका आधार है। संक्षेप रुचि वाले शिष्यों की अपेक्षा से बीस प्ररूपणाओं का गुणस्थान और मार्गणा इन…
१४. अयोगकेवली गुणस्थान सयोगकेवली योग निरोध कर चौदहवें गुणस्थान में अयोगी-केवली कहलाते हैं। पहले, दूसरे, तीसरे गुणस्थान तक बहिरात्मा, चौथे से बारहवें तक अंतरात्मा एवं तेरहवें, चौदहवें में परमात्मा कहलाते हैं। आयु कर्म के बिना शेष सात कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा का क्रम—सातिशयमिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनंतानुबंधी के विसंयोजक, दर्शनमोह के क्षपक, कषायों के उपशामक,…
५. देशविरत गुणस्थान यहाँ पर प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहने से पूर्ण संयम नहीं होता किन्तु अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहने से एक देशव्रत होते हैं अत: इस पंचम गुणस्थान का नाम देशसंयम है। इसमें त्रसवध से विरति और स्थावर वध से अविरति ऐसे विरताविरत परिणाम एक समय में रहते हैं अत: यह संयमासंयम गुणस्थान…
गणधरवलय मंत्र स्तुति प्रस्तुति – गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी (हिन्दी पद्य) (चौबोल छंद) पद्य – १ ‘‘णमो जिणाणं’’ घातिकर्मजित, ‘‘जिन को ’’ नमस्कार होवे। सर्व कर्मजित सब सिद्धों को, नमस्कार भी नित होवे।। कहें ‘‘देशजिन’’ सूरि पाठक, साधूगण इंद्रियविजयी। रत्नत्रय से भूषित नित ये, इन सबको भी नमूं सही।।१।। पद्य – २ ‘‘ओहिजिणाणं णमो‘‘ सदा…
६. प्रमत्तविरत (प्रमत्तसंयत ) गुणस्थान यहाँ सकल संयम घातक प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से पूर्ण संयम हो चुका है किन्तु संज्वलन और नोकषाय के उदय से मल को उत्पन्न करने वाले प्रमाद के होने से इसे प्रमत्तविरत कहते हैं। यह साधु सम्पूर्ण मूलगुण और शीलों से सहित, व्यक्त, अव्यक्त प्रमाद के निमित्त से चित्रल आचरण…
७. अप्रमत्तविरत गुणस्थान संज्वलन और नोकषाय के मंद उदय से सकल संयमी मुनि के प्रमाद नहीं है अत: ये अप्रमत्तविरत कहलाते हैं। इसके दो भेद हैं—स्वस्थान अप्रमत्त, सातिशय अप्रमत्त। जब तक चारित्र मोहनीय की २१ प्रकृतियों का उपशमन, क्षपण कार्य नहीं है किन्तु ध्यानावस्था है तब तक स्वस्थान अप्रमत्त हैं । जब २१ प्रकृतियों का…
९. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में ध्यान में स्थित एक समयवर्ती अनेकों मुनियों के परिणामों में होने वाली विशुद्धि में परस्पर में निवृत्ति अर्थात् भेद नहीं पाया जाता है इसलिये इसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं। इसका काल भी अंतर्मुहूर्त है।
१३. सयोगकेवली गुणस्थान यहाँ तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान प्रगट हो जाता है और क्षायिक भावरूप नवकेवललब्धियाँ प्रकट हो जाती हैं । ये परमात्मा अरिहंत परमेष्ठी कहलाते हैं। कुछ अधिक आठ वर्ष कम एक कोटिपूर्व वर्ष तक इस गुणस्थान में केवली भगवान रह सकते हैंं ।