जैन सिध्दांत में कर्म व्यवस्था को ही सर्वाधिक बलवान मानकर उससे लड़ने का मार्ग हमारे तीर्थंकरों ने बताया हैं ,फिर भी बाह्यनिमित्तों में ग्रह आदि का भी महत्त्वपूर्ण स्थान माना हैं|ग्रह नव माने हैं,सूर्य ,सोम ,मंगल ,बुद्ध,गुरु ,शुक्र ,शनि,राहु,केतू| इन नवग्रहों के अधिपति देवता पूर्व जन्म के वैर या मित्रत्रावश अथवा इस जन्म में मात्र क्रीडा आदि के निमित्त से लोगों को सुख -दुःख फुचातें रहते हैं |
नवग्रह अरिष्ट निवारक पूजा विधान एवं स्तोत्र की परम्परा काफी दिनों से हमारें समाज में चल रहि हैं ,वर्तमान में नवग्रह 2 प्रकार है |
पहला -”जिनसागरसूरी कृत”नवग्रह -जिसमें नव भगवान माने हैं |
दूसरा -”’श्रुतकेवली भद्रबाहु मुनिराज कृत”जिसमे 24 भगवानमाने हैं |
इस पुस्तक में ४ प्रकार के नवग्रहशांति मंत्र भी दिये हैं |
ॐशांति
जैन वांगमय चार अनुयोगों में विभक्त है जिसमें करणानुयोग के अंतर्गत तीनों लोक , भूगोल- खगोल आदि का वर्णन आता है | परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने चारों अनुयोगों का तलस्पर्शी ज्ञानप्राप्त करके करणानुयोग के अंतर्गत जैन ज्योतिर्लोक के विषय में बताया है | प्रस्तुत पुस्तक में सूर्य, चंद्रमा, तारे कहाँ हैं ? पृथ्वी से कितनी ऊंचाई पर हैं? उनके विमान का प्रमाण , उनकी किरणों का प्रमाण ,शीत- उष्ण किरणें , देवों की आयु , दिन – रात्रि का विभाग , १ मिनट में सूर्य का गमन , चंद्रग्रहण – सूर्यग्रहण आदि प्रमुख विषय लिए गए हैं | साथ ही भूभ्रमण खंडन में जैन ग्रन्थानुसार पृथ्वी को स्थिर बताया है | इस् पुस्तक के माध्यम से जैन भूगोल- खगोल को अच्छी प्रकार समझा जा सकता है |
जिनेन्द्र भक्ति में अनंत शक्ति है ,आज जितने भी जीव सिद्ध हुए है ,उन सभी ने पूर्व भवों में खूब भक्ति की है |
इसमें सर्वप्रथम अनादिनिधन णमोकार मन्त्र चत्तारि मंगलपाठ को शुद्ध उच्चारण के बारे में बताते हुए, भगवान ऋषभदेव के दशावतार गर्भित संस्कृत में स्तुति दी हैं ,पश्चात कुन्दकुन्द विरचित प्राकृत पंचमहा गुरु भक्ति का पद्यानुवाद दिया है पुन: पंचपरमेष्ठी स्तोत्र के पांच अलग-अलग स्तोत्र द्वारा वन्दना की हैं |
इस पुस्तकमें 28 तरह के स्तोत्र का संग्रह किया हैं ,जिसमें सोलहकारण, दशलक्षण,रत्नत्रय ,ढाईद्वीप समवसरण,कृत्रिम जिनालय ,सिद्धशिला आदि स्तोत्रों को रचकर हमसभी को प्रदान किया हैं |
हमसभी पूज्य माताजी के बहुत आभारी है और उनके चरणों में त्रिबारवन्दामीकरते हैं
प्रवचन-निर्देशिका मंगलाचरणम्र सर्वज्ञो वीतरागोऽर्हन्, श्रेयोमार्गस्य शासक:। नमस्करोमि तं भक्त्या, स पुष्यात् मे समीहितम्।।१।। अर्हतां दिव्यवाणी या, स्याद्वादामृतगर्भिणी। सा मे चित्ते सदा तिष्ठेत्, वाणीं च विमलीक्रियात्।।२।। सिद्धं जैनं प्रकृष्टत्वाद् वच: प्रवचनाभिधम्। तन्मे चित्ते सदा स्थेयात्, सत्पथं चापि निर्दिशेत्।।३।। उपदिश्यु: जनान् सन्त:, आनुपूव्र्या ह्यतो मया। तेषां प्रवचनस्यैषा, निर्देशिका प्रवक्ष्यते।।४।। अर्हंत भगवान सर्वज्ञ हैं,…