जैनधर्म के ११ वें तीर्थंकर श्री श्रेयांसनाथ ने सिंहपुरी [ वर्तमान सारनाथ ] में पिता विष्णुमित्र- माता नंदा के महल में फाल्गुन वदी ग्यारस को जन्म लिया और इसी तिथि में दीक्षा ली तथा सम्मेदशिखर से मोक्षधाम को प्राप्त किया उन्हीं भगवान श्रेयांसनाथ के गुणानुवाद रूप यह विधान पूज्य माताजी ने लिखा है | इस विधान में १०८ अर्घ्य , १ पूर्णार्घ्य और १ जयमाला है |विधान के अंत में सिंहपुरी तीर्थ पूजा, आरती, भजन आदि हैं |
वास्तव में पञ्चकल्याणक से समन्वित तीन लोक के नाथ की महिमा का वर्णन अकथनीय है |यह विधान सभी के जीवन में सुख, शान्ति को प्रदान करे यही भावना है |
जैन धर्म के १३ वें तीर्थंकर भगवान विमलनाथ ने कम्पिलापुरी में महाराजा कृतवर्मा एवं माता जयश्यामा के महल में जन्म लिया और सम्मेदशिखर से मोक्ष प्राप्त किया | पञ्चकल्याणक की महिमा से युक्त ऐसे श्री विमलनाथ का यह विधान है | परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने जिनधर्म की महान प्रभावना करते हुए ५०० ग्रंथों की रचना की जिसमें यह विधान भी बहुत चमत्कारिक है | विधान में ३ पूजा , १०८ अर्घ्य , १ पूर्णार्घ्य है और ३ जयमाला हैं | जयमाला में सोलहकारण भावना का सुन्दर वर्णन है | अंत में कम्पिलापुरी तीर्थ पूजा, आरती , भजन आदि हैं | यह विधान सभी के जीवन में सुख – शान्ति , समृद्धि को करे यही पवित्र भावना है |
परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी एक ऐसी महान हस्ती हैं जिनके ज्ञान की चर्चा आज देश -विदेश तक फ़ैली हुई है | उन्होंने बचपन से लेकर आज तक जो भी कार्यकलाप किये वे इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ बन गए | उन्होंने अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को , एक -एक स्वांस को जिनधर्म के लिए समर्पित कर दिया और जिनधर्म के परचम को दुनिया के कोने- कोने में पहुंचाकर जैन समाज पर महान उपकार किया , इस क्रम में आज भी ८९ वर्ष की उम्र में भी वे जिनधर्म की प्रभावना में सतत संलग्न हैं | अगर हम उनके एक -एक गुण का वर्णन करने लग जावें तो बड़े- बड़े ग्रन्थ तैयार हो जायेंगे | उनके उन्हीं महान व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रति नतमस्तक होते हुए उनके दिव्य गुणों का किंचित वर्णन इस पुस्तिका में उन्हीं की महान शिष्या परम पूज्य मर्यादाशिष्योत्तमा ,आर्यिकारत्न श्री चंदनामती माताजी ने किया है , इस पुस्तिका के माध्यम से आप सब उनके जीवन से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को समुन्नत बनाने का प्रयास करें यही शुभेच्छा है |
जिनेंद्र भगवान का नाम मात्र भी प्रत्येक प्राणियों के लिए शांति दायक होता है तथा उनके पापों का नाश करने वाला होता है
इसी क्रम में पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने भगवान महावीर स्वामी के 2600वें जन्म कल्याणक के अवसर पर एक नई कृति (विश्वशांति महावीर विधान) भगवान के प्रति समर्पित की
इस विधान में महावीर स्वामी की 2600सौ मंत्रों द्वारा स्तुति की गई है और विशेष रूप से इसमें रत्न चढ़ाने की प्रेरणा दी है
यह विधान एक अनूठी कृति है जिसे करके भव्य जीव पुण्य का अर्जन करें यही मंगल भावना है
जैन धर्म के 21 वे तीर्थंकर श्री नमिनाथ भगवान हुए हैं, मिथिलापुरी में जन्में भगवान के पिता महाराज विजय एवं माता बप्पिला देवी थीं। भदिलपुर में गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान कल्याणक को एवं सम्मेदशिखर में मोक्षकल्याणक को प्राप्त किया ।
पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी में 34अतिशय 8 प्रातिहार्य और चार अनंत चतुष्टय से सहित भगवान नमिनाथ की विधान की रचना करके प्रस्तुत किया, इस विधान में 108 मंत्रों सहित 108 अर्घ्य चढ़ायें जातें हैं ।
यह विधान सबके लिए मंगलमय हो यही मंगल भावना है
जैन धर्म के 22 तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ में हैं भगवान नेमिनाथ का जन्म शौरीपुर नगर में एवं मोक्ष गिरनार जी सिद्धक्षेत्र पर हुआ ।भगवान नेमिनाथ का जीवन बहुत ही रोमांचक रहा है पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने विधानों की श्रंखला में श्री अरिष्टनेमि तीर्थंकर विधान लिखकर प्रदान किया है इस विधान में सर्वप्रथम तीर्थंकर श्री नेमिनाथ का उनकी जन्मभूमि शौरीपुर तीर्थ का एवं निर्माण भूमि गिरनार जी सिद्धक्षेत्र का परिचय दिया है।
इस विधान के शुभारंभ में मंगलाचरण पश्चात नेमिनाथ स्त्रोत दिया है इसमें भगवान नेमिनाथ का जीवनवृत गागर में सागर के समान समाहित है इसे पढ़कर पूरा स्वाध्याय का लाभ मिल जाएगा ।इसके बाद में अर्हंत पूजा एवं भगवान नेमिनाथ की 108 मंत्र से समन्वित पूजा एवं अर्घ्य समर्पित किया है।
यह विधान सभी के लिए मंगलकारी हो यही मंगल भावना है।
संस्कृत भाषा एक प्राचीन भाषा है जिसका ज्ञान प्रत्येक भारतीय विद्यार्थियों को होना चाहिए | आज लोग इसे बहुत कठिन भाषा समझते हैं किन्तु इस पुस्तक को पढकर आप जान सकते हैं कि यह एक सरल भाषा है| इसके ३-४ भाग प्रकाशित हुए हैं जिनमें क्रम से संस्कृत का ज्ञान कराया गया है | इस प्रारंभिक पुस्तक में लिंग, धातु , शब्द आदि के द्वारा संस्कृत का ज्ञान कराया गया है |
इस युग के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने शाश्वत तीर्थ अयोध्या में जन्म लेकर प्राणी मात्र को जीवन जीने की कला सिखाई , सभी विद्याओं और कलाओं का सूत्रपात किया, वर्ण व्यवस्था , राजनीति ,आदि सभी विषयों का परिज्ञान इन्हीं आदिब्रम्हा आदि १००८ नामों से जाने जाने वाले भगवान ऋषभदेव ने प्रदान किया है |
परम पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने माँगीतुंगी में १०८ फुट भगवान ऋषभदेव मूर्ति पंचकल्याणक के अवसर पर भगवान ऋषभदेव से सम्बंधित अनेक साहित्य जैन जगत को प्रदान किये , उसी क्रम में यह ऋषभदेव विधान [ वृहत] है | इस विधान में १५ पूजा , १२५९ अर्घ्य , २१ पूर्णार्घ्य एवं १६ जयमाला हैं | प्रत्येक करने – कराने वालों के लिए यह विधान सुख, शान्ति, समृद्धि का दाता होवे यही पवित्र भावना है |
जैन धर्म में 18वें तीर्थंकर श्रीअरनाथ भगवान ने हस्तिनापुर की धरती को अपनी पावन रज से पवित्र किया है तीन पद के धारी
(तीर्थंकर ,चक्रवर्ती ,कामदेव) भगवान ने घतिया और अघातिया कर्मों का नाशकर सिद्धपरमेष्ठी बनें।
इस विधान में सर्वप्रथम मंगलाचरण अर्हंत पूजा पुनः भगवान अरनाथ की पूजा एवं पंचकल्याणक के अर्घ्य हैं, पश्चात 108 नामों को लेकर 108 अर्घ्य भगवान के प्रति समर्पित किया गया है साथ ही भगवान के समवसरण में रहने वाले गणधर, आर्यिका, श्रावक ,श्राविका आदि का भी वर्णन पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने पूजा के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
इस विधान को करके पुण्य का अर्जन करें यही मंगल भावना हैं।