सुदर्शन सेठ की काव्य कथा रचयित्री-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती भव्यात्माओं! एक प्राचीन सत्य कथानक की ओर ले चलती हूँ आपको, जिसमें एक ग्वाला एक महामुनिराज की सेवा करके सातिशय पुण्य संचित करता है। जंगल में मुनि ध्यानलीन हैं, तो क्या होता है- तर्ज-णमोकार णमोकार……….मुनिराज मुनिराज, आतमध्यानी मुनिराज।नग्न दिगम्बर मुनि बैठे हैं, इक जंगल में शान्त।……मुनिराज-२…..गगन गमन…
परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की पावन प्रेरणा से सन,१९७४ में दिगंबर जैन त्रिलोक शोध सन्स्थान नामक संस्था का उद्भव हुआ | यह भारत की एक ऐसी संस्था है जहां से चहुंमुखी कार्यकलापों का संचालन किया जाता है | यहाँ बने सुन्दर जिनमंदिर तो अद्वितीय तो हैं ही , साथ ही यहाँ से अनेकों संस्थाओं का संचालन , अनेकों उच्च कोटि के ग्रंथों का प्रकाशन अनेकों सेमीनार , संगोष्ठी , राष्ट्रीय – अंतर्राष्ट्रीय आयोजन आदि द्वारा जैनधर्म की महान प्रभावना हो रही है | इस पुस्तक में संस्थान का सम्पूर्ण परिचय प्रस्तुत है |
भगवान महावीर के शासनकाल में श्री गौतम गणधर के बाद आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव का नाम बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है | उन्होंने ८४ पाहुड ग्रंथों की रचना की जिनमें से मूलाचार भी एक है | आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव -अपर नाम वट्टकेर आचार्य लिखित मूलाचार ग्रन्थ द्वादशांग के एक अंग आचारांग का अंश रूप है | इस ग्रन्थ में बारह अधिकार हैं जिसमें मूलाचार पूर्वार्ध में सात अधिकार हैं जिसमें ६९४ गाथाएं हैं | मूलाचार ग्रन्थ मुनि- आर्यिकाओं का संहिता ग्रन्थ है | इस मूलाचार ग्रन्थ की गाथाओं पर सिद्धांतचक्रवर्ती श्री वसुनंदि आचार्य आचारवृत्ति टीका लिखी तथा जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी , सरस्वती स्वरूपा गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने इसी आचारवृत्ति टीका का हिन्दी अनुवाद किया जिससे वर्तमान युग में साधुओं के लिए अपनी चर्या को समझना और सरल हो गया | इस मूलाचार ग्रन्थ को पढकर सभी संतों को एकलविहार न करने का नियम लेना चाहिए |
अयोध्या तीर्थंकरों की शाश्वत जन्मभूमि है | यहाँ अनंतों तीर्थंकर भगवान जन्में हैं और अनंतों भगवान आगे भी जन्म लेंगे | हुंडावसर्पिणी काल दोष के कारण मात्र पाँच तीर्थंकर ही वर्तमान अयोध्या में जन्में , उनमें प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव आज से करोडों वर्ष पूर्व इस अयोध्या तीर्थ पर जन्में , आगे श्री अजितनाथ ,अभिनन्दननाथ , सुमतिनाथ , अनंतनाथ भगवान भी यहाँ जन्में | भगवान ऋषभदेव के १०१ पुत्र एवं २ पुत्रियां हुईं जिनमें प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत हुए जिनके नाम से इस देश का नाम भारत पडा .प्रथम कामदेव बाहुबली हुए , प्रथम गणधर ऋषभसेन हुए , प्रथम मोक्षगामी अनंतवीर्य हुए , प्रथम गणिनी माता ब्राम्ही हुईं , इन सभी महापुरुषों का गुणानुवाद स्तुति रूप में इसमें गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने अपनी लेखनी से किया है |
जैनधर्म में मुख्यता कर्म के आठ भेद हैं – ज्ञानावरण, दर्शनावरण , वेदनीय , मोहनीय , आयु ,नाम गोत्र , अन्तराय | जो इन कर्मों को जीत लेते हैं वे जिनेन्द्र भगवान कहलाते हैं और उनकी भक्ति , उपासना करने वाले जैन कहलाते हैं | चूंकि भगवान जन्म मृत्यु से रहित हो जाते हैं अतः वे मृत्युंजयी भी कहलाते हैं | इस संसार में जो प्राणी जन्म लेता है आयु पूरी हो जाने के बाद उसकी मृत्यु अवश्यमेव होती है पर कभी- कभी प्राणी की दुर्घटना, विष खाने आदि अनेक कारणों से अकालमृत्यु भी हो जाती है ऐसा शास्त्रों में वर्णन है उस अकालमृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिए ही उन मृत्युंजयी भगवान की आराधना करने का विधान भी ग्रंथों में बताया गया है | परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की शिष्या प्रज्ञाश्रमणी आर्यिकारत्न श्री चंदनामती माताजी ने उसी अकालमृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिए अति सुन्दर माध्यम इस विधान की रचना करके प्रदान किया है , छोटी माताजी के नाम से प्रसिद्ध पूज्य चंदनामती माताजी एक सिद्धहस्त लेखिका हैं जिन्हें पाकर जिनशासन गौरव का अनुभव करता है |
णमोकार मन्त्र अनादि है इसे किसी ने न तो बनाया है और न ही खत्म कर सकता है | यह नमस्कार मन्त्र है , समस्त द्वादशांग जिनवाणी का सार है , ८४ लाख मन्त्रों का जनक है , समस्त मन्त्र शास्त्र की उत्पत्ति इसी मन्त्र से हुई है | प्रत्येक तीर्थंकर के कल्पकाल में इसका अस्तित्व रहता है | जैसे आत्मा अनादि अविनश्वर है वैसे ही यह मन्त्र अनादि अविनश्वर है | श्रद्धा सहित इसका ध्यान करने वाला संसार समुद्र से तिर जाता है और अपमान करने वाला नर्क जाता है | इस मन्त्र में सभी पाप, मल और दुष्कर्मों को भस्म कर देने की शक्ति है | परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने षट्खण्ड़ागम , मूलाचार , अनगार धर्मामृत , महापुराण , उत्तर पुराण आदि प्राचीन ग्रंथों के आधार से इसकी प्राचीनता का दिग्दर्शन इस पुस्तक में किया है |
जैनागम में चारों अनुयोगों में द्वादशांग को निबद्ध किया गया है जिसमें करणानुयोग के अंतर्गत तीन लोक में स्थित अधो,मध्य और ऊर्ध्वलोक का वर्णन है | मध्यलोक में असंख्यात द्वीप समुद्र हैं, सर्वप्रथम द्वीप का नाम जम्बूद्वीप और प्रथम समुद्र का नाम लवण समुद्र है , अंतिम द्वीप का नाम स्वयम्भू रमण द्वीप और अंतिम समुद्र का नाम स्वयम्भूरमण समुद्र है | जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन तथा लवण समुद्र का विस्तार दो लाख योजन है | मध्यलोक में तेरह द्वीपों तक ४५८ अकृत्रिम जिनमंदिर हैं तथा देवभवनों में जिनमंदिर बने हुए हैं | लवण समुद्र के बाह्य और अभ्यंतर भाग में नागकुमार देवों के अनेकों नगर हैं जिनके प्रासादों में जिनमंदिर हैं ये नगरियाँ अनादिनिधन हैं | करणानुयोग का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त कर जि़नागम के गूढ़ विषयों को अत्यंत सरल रूप में प्रस्तुत करने में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी सिद्धहस्त हैं | इस पुस्तक में अनेक प्राचीन ग्रंथों के माध्यम से माताजी ने लवण समुद्र के अंदर स्थित सभी जिनमंदिरों के दर्शन करवाकर सभी पर महान उपकार किया है और एक महान कृति प्रदान की है |
जैन – जैनेतर ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार से प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम से इस देश का नाम भारत पड़ा | उन्हीं सम्राट चक्रवर्ती ने छह खंड वसुधा पर शासन करके घर में वैरागी की तरह रहकर दीक्षा लेते ही दिव्य केवलज्ञान प्राप्त कर लिया , उन सिद्ध परमेष्ठी के इतिहास का दिग्दर्शन कराने की पवित्र भावना से परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने कनाटप्लेस दिल्ली में ”भगवान भरत ज्ञानस्थली तीर्थ ” का निर्माण कराकर ३१ फुट ऊंचे भरत भगवान विराजमान किये , साथ ही वियतनाम पत्थर में
ह्में के अंदर रत्न चौबीसी ,आचार्य श्री शांतिसागर कीर्तिस्तम्भ आदि का निर्माण होकर उनकी सुन्दर पूजा आराधना के लिए यह पुस्तक लिखी है |