चार्ट नं-४ ज्योतिष्क देवों के बिम्बों का प्रमाण
चार्ट नं-४ ज्योतिष्क देवों के बिम्बों का प्रमाण
चार्ट नं-४ ज्योतिष्क देवों के बिम्बों का प्रमाण
चार्ट नं-३ ज्योतिष्क देवों की पृथ्वी तल से ऊँचाई
ज्योतिर्लोक का वर्णन ज्योतिष्क देवों के भेद ज्योतिष्क देवों के ५ भेद हैं—१. सूर्य, २. चन्द्रमा, ३. ग्रह, ४. नक्षत्र, ५. तारा। इनके विमान चमकीले होने से इन्हें ज्योतिष्क देव कहते हैं। ये सभी विमान अर्धगोलक के सदृश हैं तथा मणिमय तोरणों से अलंकृत होते हुये निरन्तर देव-देवियों से एवं जिनमंदिरों से सुशोभित रहते हैं।…
ज्योतिर्लोक जिनालय स्तोत्र -गणिनी ज्ञानमती -शंभु छंद- पृथ्वी से सात शतक नब्बे, योजन ऊपर ज्योतिष सुर हैं। रवि शशि ग्रह नखत और तारे, ये पाँच भेद ज्योतिष सुर हैं।। सबके विमान में जिनमंदिर, मणिमय शाश्वत जिनप्रतिमायें। उनको मैं भक्ती से वंदूँ, ये मोक्षमार्ग को दिखलायें।।१।। –गीता छंद– जय जय जिनेश्वर धाम जग में, इंद्र सौ…
भू-भ्रमण का खण्डन (श्लोकवार्तिक तीसरी अध्याय के प्रथम सूत्र की हिन्दी से) कोई आधुनिक विद्वान कहते हैं कि जैनियों की मान्यता के अनुसार यह पृथ्वी वलयाकार चपटी गोल नहीं है। किन्तु यह पृथ्वी गेंद या नारंगी के समान गोल आकार की है। यह भूमि स्थिर भी नहीं है। हमेशा ही ऊपर नीचे घूमती रहती है…
योजन एवं कोस बनाने की विधि पुद्गल के सबसे छोटे अविभागी टुकड़े को परमाणु कहते हैं। ४ कोस का १ लघु योजन ५०० लघु योजनों का १ महायोजन २००० धनुष का १ कोस है। अत: १ धनुष में ४ हाथ होने से ८००० हाथ का १ कोस हुआ एवं १ कोस में २ मील मानने…
ज्योतिर्वासी देवों में उत्पत्ति के कारण देवगति के ४ भेद हैं—भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिर्वासी एवं वैमानिक। सम्यग्दृष्टि जीव वैमानिक देवों में ही उत्पन्न होते हैं। भवनत्रिक (भवन, व्यन्तर, ज्योतिष्क देव) में उत्पन्न नहीं होते हैं क्योंकि ये जिनमत के विपरीत धर्म को पालने वाले हैं, उन्मार्गचारी हैं, निदानपूर्वक मरने वाले हैं, अग्निपात, झंझावात आदि से मरने…
असंख्यात द्वीप समुद्रों में सूर्य चन्द्रादि इसी प्रकार आगे के द्वीप में ८२८८० से दूने सूर्य, चन्द्र प्रथम वलय में हैं और आगे के वलयों में ४-४ से बढ़ते जाते हैं। वलय भी ३२ से दूने ६४ हैं। पुन: इस द्वीप में ६४ वलयों के सूर्यों की जो संख्या है उससे दुगुने अगले समुद्र के…
पुष्करवर समुद्र के सूर्य चन्द्रादिक पुष्करवर द्वीप को घेरे हुये पुष्करवर समुद्र ३२ लाख योजन का है। इसमें प्रथम वलय पुष्करवर द्वीप की वेदी से ५०००० योजन आगे है। इस प्रथम वलय से १-१ लाख योजन की दूरी पर आगे-आगे के वलय हैं। अंतिम वलय से ५०००० योजन जाकर समुद्र की अंतिम तट वेदी है।…
ढाई द्वीप के बाहर स्थित ज्योतिष्क देवों का वर्णन मानुषोत्तर पर्वत के बाहर जो असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं उनमें न तो मनुष्य उत्पन्न ही होते हैं और न वहाँ जा ही सकते हैं। मानुषोत्तर पर्वत से परे (बाहर) आधा पुष्करद्वीप ८ लाख योजन का है। इस पुष्करार्ध में १२६४ सूर्य एवं इतने ही (१२६४)…