जैनधर्म स्वतंत्र है-
जैनधर्म स्वतंत्र है- यह जैन एक स्वतंत्र धर्म है न कि किसी धर्म की शाखा, इसके लिए भी प्रबल प्रमाण हैं।
जैनधर्म स्वतंत्र है- यह जैन एक स्वतंत्र धर्म है न कि किसी धर्म की शाखा, इसके लिए भी प्रबल प्रमाण हैं।
बौद्धदर्शन के प्रसिद्ध आचार्य धर्मकीर्ति लिखते हैं- ‘‘ऋषभो वर्धमानश्च तावादौ यस्य स ऋषभवर्धमानादि: दिगंबराणां शास्ता सर्वज्ञ आप्तश्चेति।’’६ इससे स्पष्ट है कि आठवीं शताब्दी में भी जैनेतर विद्वान् जैनधर्म के प्रथम उपदेशक भगवान् ऋषभदेव को और अंतिम उपदेशक सर्वज्ञ वर्धमान भगवान को मानते थे। इन सभी उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर…
अन्य भी प्रमाण वैदिक ग्रंथों के देखे जाते हैं- ‘‘येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठ: श्रेष्ठगुण आसीद् येनेदं वर्षं भारत-मिति व्यपदिशन्ति।२’’ ‘‘ऋषभाद् भरतो भरतेन चिरकालं धर्मेण पालितत्वादिदं भारतं वर्षमभूत्।।३’’ ऋग्वेद आदि वेदों में भी ऋषभदेव को तो माना ही है, कहीं-कहीं चौबीस तीर्थंकरों को भी स्वीकार किया है। यथा- ‘‘ॐ त्रैलोक्यप्रतिष्ठितान् चतुर्विंशतितीर्थकरान् ऋषभाद्यान् वर्द्धमानान्तान् सिद्धान् शरणं…
वायुपुराण में लिखा है-ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम से देश का नाम भारत- नाभिस्त्वजनयत् पुत्रं, मेरुदेव्यां महाद्युति:। ऋषभं पार्थिवं श्रेष्ठं, सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम्।। ऋषभाद् भरतो जज्ञे, वीर: पुत्रशताग्रज:। सोऽभिषिच्याथ भरतं, पुत्रं प्राव्राज्यमास्थित:।। हिमाह्वं दक्षिणं वर्षं, भरताय न्यवेदयत्। तस्माद् भारतं वर्षं, तस्य नाम्ना विदुर्बुधा:।।१ अभिप्राय यह है कि नाभिराजा की पत्नी मेरुदेवी ने ऋषभ पुत्र को…
भागवत् में भी ऋषभदेव के बारे मे लिखा है- ‘‘भगवान परमर्षिभि: प्रसादितो नाभे: प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मेरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमंथिनां शुक्लया तनुवावतार२। यज्ञ में महर्षियों द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने पर श्रीभगवान् महाराज नाभिराज को प्रिय करने के लिए उनके रनिवास में महारानी मेरुदेवी के गर्भ से दिगम्बर संन्यासी और ऊर्ध्वचेता मुनियों का धर्म…
अधिकतम तीर्थंकर संख्या- मध्यलोक में ढाई द्वीप में एक सौ सत्तर कर्मभूमियाँ मानी हैं। उनमें से एक सौ साठ विदेहक्षेत्र की हैं और पाँच भरतक्षेत्र तथा पांच ऐरावत क्षेत्र की, ऐसे १७० कर्मभूमि हैं। इन्हीं में से एक कर्मभूमि जम्बूद्वीप के दक्षिण में स्थित भरतक्षेत्र है जिसके आर्यखंड की कर्मभूमि में हम और आप रह…
चौबीस तीर्थंकरों के नाम- श्री ऋषभदेव, अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, पुष्पदंतनाथ, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी। इस भरत क्षेत्र में उत्पन्न हुये इन चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार हो, ये ज्ञानरूपी फरसे से भव्य जीवों के संसाररूपी वृक्ष को छेदने वाले…
अनादि जैनधर्म मंगलाचरण नमो नम: सत्त्वहितंकराय, वीराय भव्याम्बुजभास्कराय। अनंतलोकाय सुरार्चिताय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय।। जैनधर्म के ग्रंथों में लोक को-संसार को अनादिनिधन माना है। जैसे कि-‘लोगो अकिट्ठिमो खलु अणाइणिहणो सहावणिव्वत्तो।१’’ इसी लोक में मध्यलोक में ‘‘जम्बूद्वीप’’ नाम से प्रथम द्वीप है। इसके अन्तर्गत भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन होता रहता है।…
अनाधिनिधन महामंत्र, तीर्थ आदि जो अनादि-अनंत हैं (आज जो उपलब्ध हैं) १. णमोकार मंत्र अनादि है। २. चत्तारि मंगल पाठ अनादि है। ३. दो तीर्थ अनादि हैं–अयोध्या, सम्मेदशिखर। ४. मास, तिथियाँ अनादि हैं। श्रावण, भाद्रपद आदि मास, प्रतिपदा, द्वितीया आदि तिथियाँ, कृष्ण-शुक्ल पक्ष। ५. अष्टमी–चतुर्दशी पर्व, नंदीश्वर पर्व, सोलहकारण, दशलक्षण, पंचमेरू व रत्नत्रय पर्व, व्रत…
अनादि जैनधर्म णमोकार महामंत्र एवं चत्तारिमंगल पाठ णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।। चत्तारि मंगलं-अरिहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहु मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरिहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहु सरणं पव्वज्जामि, केवलि पण्णत्तो धम्मो सरणं…