कृतिकर्म विधि
कृतिकर्म विधि… कृतिकर्म विधि कृतिकर्म प्रयोग विधि/ कायोत्सर्ग विधि गुरुवन्दना चत्तारिमंगल पाठ
कृतिकर्म विधि… कृतिकर्म विधि कृतिकर्म प्रयोग विधि/ कायोत्सर्ग विधि गुरुवन्दना चत्तारिमंगल पाठ
“…तीर्थंकर बनने के नियम…” (सोलहकारण भावनाओं के नाम में अन्तर) (षट्खण्डागम ग्रंथ के आधार से) षट्खण्डागम में छह खण्डों के नाम क्रमश:-१. जीवस्थान, २. क्षुद्रकबंध, ३. बंधस्वामित्वविचय, ४. वेदनाखण्ड, ५. वर्गणाखण्ड और ६. महाबंध हैं। इसमें तृतीय खण्ड बंधस्वामित्व का वर्णन धवला पुस्तक आठवीं में है। इस ग्रंथ में बंध के चार कारण माने हैं-‘‘जीवकम्माणं…
“…अनेक तीर्थस्थलों पर शासन देव-देवियों के चित्र…”
“…श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार-चतुर्थ अधिकार…” (पंडित सदासुख जी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार की वचनिका हिन्दी टीका में दोनों पंथों को आगम सम्मत माना है और अपनी-अपनी रुचि अनुसार दोनों को पूजा करने के लिए कहा है।) इहां ऐसा विशेष और जानना जो जिनेन्द्र के पूजन समस्त च्यार प्रकार के देव तो कल्पवृक्षनितैं उपजे गन्ध, पुष्प, फलादि सामग्री…
“…वर्तमान में महान बीसपंथी आचार्य…” बीसवीं शताब्दी में चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज दक्षिण में हुये। इन्होंने पंचामृत अभिषेक को प्रमाणिक सिद्ध किया और अपने शिष्यों को करने का उपदेश ही नहीं, आदेश भी दिया। वे आचार्य देव स्वयं चर्या से पूर्व भगवान का पंचामृत अभिषेक देखकर गंधोदक लेकर ही आहार को उठते थे।मैं…
“…शासन देव-देवी आदि के प्रमाण…” विश्वेश्वरादयो ज्ञेया, देवता शांतिहेतवे। क्रूरास्तु देवता: हेया, येषां स्याद्वृत्तिरामिषै:।। अर्थ-जिनागम में विश्वेश्वर, चक्रेश्वरी, पद्मावती आदि देवता शांति के लिए बतलाये हैं। परन्तु जिन पर बलि चढ़ाई जाती है, जीव मारकर चढ़ाये जाते हैं ऐसे चंडी, मुंडी आदि देवता त्याग करने योग्य हैैं। इसका भी खुलासा इस प्रकार है। मिथ्यात्वपूरिता: क्रूरा:,…
“…यज्ञोपवीत आवश्यक है…” भगवान के अभिषेक, पूजा व साधु के आहार दान में यज्ञोपवीत धारण करना आवश्यक है खान में से निकला हुआ सोना तब तक रूप रंग में सुन्दर नहीं बन पाता, जब तक कि उसका विधिपूर्वक अग्नि से तपाकर संस्कार नहीं हो जाता। अग्नि के अनेक तापों से तपकर ही सुवर्ण मूल्यवान बना…
“…स्त्रियों के द्वारा जिनाभिषेक के प्रमाण…” (१) अत्यंतसुकुमारस्य, जिनस्य सुरयोषित:। शच्याद्या: पल्लवस्पर्श-सुकुमारकरास्तत:।।१७२।। दिव्यामोदसमाकृष्टषट्पदौघानुलेपनै: । उद्वर्तयन्त्यस्ता: प्रापु:, शिशुस्पर्शसुखं नवम्।।१७३।। ततो गंधोदवैâ: कुंभैरभिषिंचन् जगत्प्रभुं। पयोधरभरानम्रास्ता वर्षा इव भूभृतं१।।१७४।। शचि आदि देवियों ने अत्यंत सुकुमार जिनबालक के शरीर पर दिव्य सुगंधित चंदन विलेपन करके शिशु के स्पर्श के नूतन सुख का अनुभव किया। पुन: सुगंधित जल से भरे…
“…अष्टद्रव्य से पूजा…” भगवान की अष्टद्रव्य से पूजा करते समय चरणों में चंदन लगाना। फूल,फल, दीप, धूप वास्तविक लेना ऐसा विधान है प्रमाण देखिये- पसमइ रयं असेसं, जिणपयकमलेसु, दिण्णजलधारा। भिंगारणालणिग्गय, भवंतभिंगेहि कव्वुरिया।। प्रशमति रज: अशेषं, जिनपदकमलेषु दत्तजलधारा। भृंगारनालनिर्गता, भ्रमद्भृंगै: कर्बुरिता।।४७०।। अर्थ-सबसे पहले जल की धारा देकर भगवान की पूजा करनी चाहिए। वह जल की धारा…
“…चंदन पूजा का महत्त्व…” श्री चन्दनं विनानैव, पूजां कुर्यात्कदाचन। प्रभाते घनसारस्य, पूजा कार्या विचक्षणै:।।१२५।। अर्थ-श्री जिनेन्द्र देव की पूजा बिना चन्दन के कभी नहीं करनी चाहिए। चतुर पुरुषों को प्रात: काल के समय चन्दन से पूजा अवश्य करनी चाहिए। भावार्थ-प्रात: काल में भगवान जिनेन्द्र देव की पूजा उनके चरणारविंद के अंगुष्ट पर चन्दन लगाकर करनी…