व्यंतर देवों के भेद
व्यंतर देवों के भेद किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच इस प्रकार से ये व्यंतर देव आठ प्रकार के होते हैं। भूतों के चौदह हजार प्रमाण और राक्षसों के १६ हजार प्रमाण भवन हैं। शेष व्यंतरों के भवन नहीं हैं।
व्यंतर देवों के भेद किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच इस प्रकार से ये व्यंतर देव आठ प्रकार के होते हैं। भूतों के चौदह हजार प्रमाण और राक्षसों के १६ हजार प्रमाण भवन हैं। शेष व्यंतरों के भवन नहीं हैं।
व्यंतर देवों के भवन आदिकों का विस्तार आदि व्यंतर देवों के उत्कृष्ट भवनों का विस्तार – १२००० योजन व्यंतर देवों के उत्कृष्ट भवनों की मोटाई – ३०० योजन व्यंतर देवों के उत्कृष्ट भवनपुरों का विस्तार – ५१००००० योजन व्यंतर देवों के उत्कृष्ट भवन आवासों का विस्तार – १२२००० योजन व्यंतर देवों के जघन्य भवनों का…
व्यन्तर देवों के निवासस्थान रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में ७ प्रकार के व्यंतर देवों के निवास स्थान हैं एवं पंकप्रभा में राक्षस जाति के व्यंतरों का निवास स्थान है। इन व्यंतर देवों के भवन, भवनपुर और आवास ऐसे ३ प्रकार के भवन माने गये हैं। इनमें से रत्नप्रभा पृथ्वी में भवन, द्वीपसमुद्रों में भवनपुर और…
देवों के जन्म स्थान इन देवों के भवनों के भीतर उत्तम, कोमल उपपाद शाला है। वहाँ ये देव देवगति नाम कर्म के उदय से उत्पन्न होते हैं, अंतर्मुहूर्त में छहों पर्याप्तियों को पूर्ण कर १६ वर्ष के युवक के समान शरीर को प्राप्त कर लेते हैं। इन देवों के शरीर में मल, मूत्र, चर्म, हड्डी,…
भवनवासी देवों में सम्यक्त्व के कारण सम्यक्त्व सहित जीव मरकर भवनवासी देवों में उत्पन्न नहीं हो सकता है। कदाचित् जातिस्मरण, देव ऋद्धि दर्शन, जिनबिम्ब दर्शन और धर्म श्रवण के निमित्तों से ये देव सम्यक्त्व रत्न को प्राप्त कर लेते हैं। इन भवनवासी देवों से निकल कर जीव कर्मभूमि में मनुष्यगति अथवा तिर्यंचगति को प्राप्त करते…
भवनवासी देवों में जन्म लेने का कारण जो मनुष्य शंकादि दोषों से युक्त हैं, क्लेशभाव और मिथ्यात्व भाव से युक्त चारित्र को धारण करते हैं, कलहप्रिय, अविनयी, जिनसूत्र से बहिर्भूत, तीर्थंकर और संघ की आसादना करने वाले, कुमार्गगामी एवं कुतप करने वाले तापसी आदि इन भवनवासी देवों में जन्म लेते हैं।
देवों का अवधिज्ञान एवं विक्रिया अपने-अपने भवन में स्थित भवनवासी देवों का अवधिज्ञान ऊर्ध्व दिशा में उत्कृष्टरूप से मेरु पर्वत के शिखर पर्वत को स्पर्श करता है एवं अपने-अपने भवनों के नीचे-नीचे, थोड़े-थोड़े क्षेत्र में प्रवृत्ति करता है। वही अवधिज्ञान तिरछे क्षेत्र की अपेक्षा अधिक क्षेत्र को जानता है। ये असुरकुमार आदि १० प्रकार के…
देवों के शरीर की अवगाहना असुरकुमारों के शरीर की ऊँचाई – २५ धनुष