एकांकी-2
एकांकी-2… १. ऋषभदेव तीर्थंकर २. अकाल मृत्यु विजय ३. प्रत्युपकार
प्रत्युपकार जम्बूद्वीप प्रथम दृश्य मंगल-प्रार्थना स्थान—रंगभूमि। समय—प्रात:। (सब मिलकर) जिनदेव का वंदन पाप को नाशे, पुण्यरतन बरसाये। जिनदेव का वन्दन।। सर्वप्रथम मैं करूँ वंदना अरहंतों की, सिद्धों की। आचार्यों की, उपाध्याय, गुरु, सर्वसाधु गुणवंतों की।। ये मंगलकारी लोक में उत्तम शरणभूत कहलायें। जिनदेव का वन्दन।। सरस्वती की करूँ वंदना, मन में आश लगा के। जिनवचनामृत…
अकालमृत्यु विजय….. पात्रानुक्रमणिका श्री विजय महाराजा पोदनपुर के नरेश विजयभद्र युवराज पुरोहित …
ऋषभदेव तीर्थंकर (नाटिका)….. प्रथम दृश्य (भगवान ऋषभदेव राज्यसिंहासन पर विराजमान हैं। सभा लगी हुई है। उसी समय उनकी दोनों पुत्रियाँ सभा में प्रवेश कर गवासन से बैठकर हाथ जोड़कर पिता को नमस्कार करती हैं।) ब्राह्मी-सुन्दरी—पिताजी प्रणाम। भगवान ऋषभदेव—चिरंजीव रहो, बेटी! आओ। (पिता पुत्रियों के मस्तक पर हाथ फेरते हुए अपने पास बिठा लेते हैं। पुन:…
परीक्षा (जैन रामायण)…. (१) सीता का स्वयंवर कुछ क्षण विश्रांति करके राजा जनक निःशंक हो गोपुर में प्रवेश करते हैं। वहाँ जाकर देखते हैं कि चारों तरफ जहाँ-तहाँ पैâले हुए और फूले हुए रंग-बिरंगे पुष्प अपनी मधुर सुगंधि से मन को आकृष्ट कर रहे हैं। सुन्दर-सुन्दर बावड़ियों में स्वच्छ शीतल जल लहरा रहा है और…
दशलक्षण व्रत दशलक्षण व्रत विधि भादों सुदी पंचमी से चतुर्दशी तक यह व्रत किया जाता है। यदि दश दिन के मध्य कोई तिथि क्षय होवे तो चतुर्थी से व्रत प्रारम्भ करें और यदि कोई तिथि अधिक होवे तो ग्यारह दिन का व्रत करना चाहिये। व्रत में दशों दिन उपवास करना चाहिये और यदि शक्ति न…
दशधर्म…. सिद्धिप्रासादनि:श्रेणीपंक्तिवत् भव्यदेहिनाम्। दशलक्षणधर्मोऽयं नित्यं चित्तं पुनातु न:।।१।। भव्य जीवों के सिद्धिमहल पर चढ़ने के लिए सीढ़ियों की पंक्ति के समान यह दशलक्षणमय धर्म नित्य ही हम लोगों के चित्त को पवित्र करे। इन दशधर्मों के उपासना के पर्व को दशलक्षण पर्व कहते हैं। चूूँकि इसमें उपवास आदि के द्वारा आत्मा को पवित्र बनाया जाता…
क्षमावणी…. दशलक्षण पर्व का प्रारम्भ भी क्षमाधर्म से होता है और समापन भी क्षमावणी पर्व से किया जाता है। दश दिन धर्मों की पूजा करके, जाप्य करके जो परिणाम निर्मल किये जाते हैं और दश धर्मों का उपदेश श्रवण कर जो आत्म शोधन होता है उसी के फलस्वरूप सभी श्रावक—श्राविकायें किसी भी निमित्त परस्पर में…
उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म….. बंभव्वउ दुद्धरू धरिज्जइ वरू फेडिज्जइ बिसयास णिरू। तिय—सुक्खइं रत्तउ मण—करि मत्तउ तं जि भव्व रक्खेहु थिरू।। चित्तभूमिमयणु जि उप्पज्जइ, तेण जि पीडिउ करइ अकज्जइ। तियहं सरीरइं णिंदइं सेवइ, णिय—पर—णारि ण मूढउ देयइ।। णिवडइ णिरइ महादुह भुंजइ, जो हीणु जि बंभव्बउ भंजइ।। इय जाणेप्पिणु मण—वय—काएं, बंभचेरू पालहु अणुराएं।। तेण सहु जि लब्भइ भवपारउ,…
उत्तम आिंकचन्य धर्म आकिंवणु भावहु अप्पउ ज्झावहु, देहहु भिण्णउ णाणमउ। णिरूवम गय—वण्णउ, सुह—संपण्णउ परम अतिंदिय विगयभउ।। आिंकचणु वउ संगह—णिवित्ति, आिंकचणु वउ सुहझाण—सत्ति। आिंकचणु वउ वियलिय—ममत्ति, आिंकचणु रयण—त्तय—पवित्ति।। आिंकचणु आउंचियइ चित्तु पसरंतउ इंदिय—वणि विचित्तु। आिंकचणु देहहु णेह चत्तु, आिंकचणु जं भव—सुह विरत्तु।। तिणमित्तु परिग्गहु जत्थ णत्थि, आिंकचणु सो णियमेण अत्थि। अप्पापर जत्थ विचार—सत्ति, पयडिज्जइ जिंह परमेट्ठि—भत्ति।।…