भगवान महावीर के मुख से नि:सृत वाणी को ग्रंथकर्ता श्री गौतम
गणधर स्वामी ने संपूर्ण द्वादशांग के रूप में निबद्ध किया जो आज हमें अंश रूप
में उपलब्ध है। इनको चार अनुयोगों में निबद्ध किया गया है। जिसमें करणानुयोग के ग्रंथों में संपूर्ण तीन लोक का वर्णन आता है इसमें पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने तिलोयपण्णती, त्रिलोकसार,
आदि करणानुयोग के ग्रंथों से निकाल कर तीनलोक के संपूर्ण अकृत्रिम चैत्यवृक्षों
का सप्रमाण वर्णन किया है। अधोलोक में भवनवासी व व्यंतर देवों के भवनों के बाहर वेदी एवं परकोटे में तथा इन्द्रों के यहाँ ओलगशाला के आगे चैत्यवृक्ष हैं। यहाँ
चैत्यवृक्षों के मूलभाग में चारों दिशाओं में प्रत्येक में पल्यंकासन से स्थित पांच—
पांच जिनप्रतिमाएँ तथा व्यंतर देवों के यहाँ चार—चार सुवर्णमय प्रतिमाएँ विराजमान
रहती हैं। मध्यलोक में चौंसठ चैत्यवृक्ष हैं। ऊध्र्वलोक में नवग्रैवेयक आदि में भी चैत्यवृक्ष होते हैं ऐसा तिलोयपण्णत्ती ग्रंथ में वर्णन आया है। समवसरणों में चौथी उपवन भूमि तथा छठी कल्पभूमि
में भी चैत्यवृक्ष व सिद्धार्थवृक्ष पर जिनप्रतिमाएँ होती हैं। जो प्रत्येक दिशा में
एक—एक हैं। कल्पभूमि में नमेरू, मंदार, संतानक और परिजात ये चार सिद्धार्थ
वृक्ष होते हैं जिनमें चार—चार रत्नमयी सिद्धों की प्रतिमाएँ होती हैं ऐसा तिलोयपण्णत्ती,
आदिपुराण ग्रंथों में र्विणत है।
अनन्तचतुर्दशी व्रत की शास्त्रीय विधि कुछ विशेष ही है, जो इस पुस्तक में दी गई है। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने स्वरचित अनन्तचतुर्दशी व्रत पूजा में सर्वप्रथम भगवान अनन्तनाथ स्तोत्र दिया है, पुन: पूजन के अंदर पंचकल्याणक अर्घ्यों के पश्चात् संस्कृत के १४ पद्य सहित अर्घ्य एवं ९६ मंत्र ब्र. हीराचन्द अमोलिक कृत अनन्तव्रत पूजा से दिये हैं।