मंगल :!
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == मंगल : == सत्थादिमज्झ अवसाणएसु जिणतोत्त मंगलुच्चारो। णासइ णिस्सेसाइं विग्घाइं रवि व्व तिमिराइं।। —तिलोयपण्णत्ति : १-३१ शास्त्र के आदि, मध्य और अंत में किया गया जिनस्तोत्र रूप मंगल का उच्चारण सम्पूर्ण विघ्नों को उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जिस प्रकार सूर्य अंधकार को।