अर्हं मंत्र में पंचपरमेष्ठी विराजमान हैं अर्हमित्यक्षरब्रह्म वाचकं परमेष्ठिन:। सिद्धचक्रस्य सद्बीजं, सर्वत: प्रणिदध्महे।।११।। कर्माष्टकविनिर्मुत्तंक, मोक्षलक्ष्मीनिकेतनम्। सम्यक्त्वादिगुणोपेतं, सिद्धचक्रं नमाम्यहम्।।१२।। आकृष्टिं सुरसंपदां विदधते, मुक्तिश्रियो वश्यतां। उच्चाटं विपदां चतुर्गतिभुवां, विद्वैषमात्मैनसाम्।। स्तम्भं दुर्गमनं प्रति प्रयततो, मोहस्य सम्मोहनम्। पायात्पंचनमस्क्रियाक्षरमयी, साराधना देवता।।१३।। (पद्यानुवाद) शंभु छंद ‘‘अर्हं’’ यह अक्षर है, ब्रह्मरूप परमेष्ठी का वाचक। सिद्धचक्र का सही बीज है, उसको नमन करूँ…
सीता-सीतोदा नदियों के मध्य सरोवरों में कमलों में जिनमंदिर अथ मेरो: पूर्वापरदक्षिणोत्तरदिक्षु स्थितानां ह्रदानां प्रमाणमेवैकस्य ह्रदस्य तीरद्वयस्थितानां काञ्चनशैलानां संख्यां च तदुत्सेधेन सह गाथाचतुष्टयेनाह- गमिय तदो पंचसयं पंचसरा पंचसयमिदंतरिया। कुरुभद्दसालमज्झे अणुणदिदीहा हु पउमदहसरिसा।।६५६।। गत्वा तत पञ्चशतं पञ्च सरांसि पञ्चशतमितान्तरिता:। कुरुभद्रशालमध्ये अनुनदिदीर्घाणि हि पद्मह्रदसदृशानि।।६५६।। गमिय। यमकगिरिभ्यां पञ्चशतयोजनानि ५०० गत्वा कुरुक्षेत्रयो: पूर्वापर -भद्रसालयोश्च मध्ये पंचशतयोजनान्तराणि पञ्च पञ्च सरांसि।…
आचार्य श्री धर्मसागरजी का एक संक्षिप्त परिचय आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज विक्रम संवत् १९७० में पौष शु. १५ के दिन राजस्थान में बूंदी जिला के अंतर्गत ‘गम्भीरा’ नाम के गांव में सेठ श्री बख्तावरमल जी की धर्मपत्नी उमराव बाई की कुक्षि से एक बालक का जन्म हुआ था। माता-पिता ने उसका नाम चिरंजीलाल रखा…
तीर्थंकर चन्द्रप्रभ भगवान इस मध्यलोक के पुष्कर द्वीप में पूर्व मेरू के पश्चिम की ओर विदेह क्षेत्र में सीतोदा नदी के उत्तर तट पर एक ‘सुगन्धि’ नाम का देश है। उस देश के मध्य में श्रीपुर नाम का नगर है। उसमें इन्द्र के समान कांति का धारक श्रीषेण राजा राज्य करता था। उसकी पत्नी धर्मपरायणा…
जीव का ऊध्र्वगमन स्वभाव है जीव जिस स्थान में सम्पूर्ण कर्मों से छूटता है ठीक उसी स्थान के ऊपर एक समय में ऊध्र्वगमन करके लोक के अग्रभाग में जाकर स्थित हो जाता है। चूँकि यह ऊध्र्वगमन उसका स्वभाव है। शंका – जीव जिस स्थान में कर्मो से छूटा है उसी स्थान पर रह जाता है।…
धर्मोपदेशामृत (पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका ग्रंथ के आधार से विशेषार्थ सहित) -मंगलाचरण- सिद्धों को मैं नित नमूं, स्वात्म सिद्धि के हेतु। अर्हंतों की साधु की, भक्ति भवोदधि सेतु।।१।। ज्ञानसूर्य के नमन से, हृदय कमल खिल जाए। गुण सौरभ की सुरभि से, जन-जन मन महकाय।।२।। पद्मनन्दि मुनिनाथ के, चरण कमल शिर नाय। सूक्तिसुधा टीका करूं , भाषामय सुखदाय।।३।। वंदूं…