”अक्षय तृतीया पर्व” ऋषभदेव की आहारचर्या जब जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव को योग धारण किये हुए छह मास पूर्ण हो गये, तब यतियों की चर्या अर्थात् शरीर की स्थिति के अर्थ आहार लेने की विधि बतलाने के उद्देश्य से निर्दोष आहार ढूंढने के लिए वे (भगवान) विचार करने लगे कि बड़े दु:ख की बात है कि…
गतियों से आने—जाने के द्वार ‘ भवाद्भवांतरावाप्ति: गति: ‘ एक भव को छोड़कर दूसरे भव के ग्रहण करने का नाम गति है। गति के चार भेद हैं— नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति। एक—एक गति से आने के और उसमें जाने के कितने द्वार हैं सो ही देखिये— नरकगति से आने—जाने के द्वार— नरक गति से…
स्याद्वाद और सप्तभंगी स्यात्-कथंचित् रूप से ‘वाद’-कथन करने को स्याद्वाद कहते हैं। यह सर्वथा एकान्त का त्याग करने वाला है और कथंचित् शब्द के अर्थ को कहने वाला है। जैसे जीव कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य है अर्थात् जीव किसी अपेक्षा से (द्रव्यार्थिक नय से) नित्य है और किसी अपेक्षा से (पर्यायार्थिक नय से)…
”दस धर्म महत्त्व” सिद्धिप्रासादनि:श्रेणी-पंक्तिवत् भव्यदेहिनाम् ।दशलक्षणधर्मोऽयं, नित्यं चित्तं पुनातु न:।।१।। भव्य जीवों के सिद्धिमहल पर चढ़ने के लिये सीढ़ियों की पंक्ति के समान यह दशलक्षणमय धर्म नित्य ही हम लोगों के चित्त को पवित्र करे । दशलक्षण पर्व वर्ष में तीन बार आता है – भादों के महीने में , माघ के महीने में…
व्यवहार रत्नत्रय उपादेय है या नहीं? णियमेण य जं कज्जं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं। विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं।।३।। जो करने योग्य है नियम से वो ही ‘नियम’ है। वो ज्ञान दर्शन औ चरित्ररूप धरम है।। विपरीत के परिहार हेतु ‘सार’ शब्द है। अतएव नियम से ये ‘नियमसार’ सार्थ है।।३।। अर्थ-नियम से जो करने योग्य है…