चौदह धारा (त्रिलोकसार ग्रंथ के आधार से) प्रस्तुति – गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी व्यवहार काल के अन्तर्गत कुछ विशेष संख्याएँ आर्यखण्ड में नाना भेदों से संयुक्त जो काल प्रवर्तता है, उसके स्वरूप का वर्णन करते हैं। कालद्रव्य अनादिनिधन है, वर्तना उसका लक्षण माना गया है-जो द्रव्यों की पर्यायों को बदलने मे सहायक हो, उसे वर्तना…
प्रमाण का वर्णन प्रमाणनयैरधिगम:।।१ प्रमाण और नयों के द्वारा जीवादि पदार्थों का बोध होता है। सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। न्याय ग्रंथों में २‘अपने और अपूर्व अर्थ को निश्चय कराने वाला ज्ञान प्रमाण माना है।’ प्रमाण के दो भेद हैं-परोक्ष और प्रत्यक्ष। परोक्षप्रमाण इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला ज्ञान परोक्ष है। उसके…
पंच परमेष्ठी के मूलगुण जो परम अर्थात् इन्द्रों के द्वारा पूज्य, सबसे उत्तम पद में स्थित हैं, वे परमेष्ठी कहलाते हैं। वे पाँच होते हैं-अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु। अरिहंत का स्वरूप जिनके चार घातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं, जिनमें ४६ गुण हैं और १८ दोष नहीं हैं, उन्हें अरिहंत परमेष्ठी कहते हैं।…
द्वादश भावना (ज्ञानार्णव ग्रंथ से) आगे इस प्राणी को ध्यान के सन्मुख करने के लिये संसार, देह, भोगादि से वैराग्य उत्पन्न कराना है, सो वैराग्योत्पत्ति के लिये एकमात्र कारण बारह भावना है; इस कारण इनका व्याख्यान इस अध्याय में किया जायेगा। सो प्रथम ही इनके भावने की (बारम्बार चिन्तवन करने की) प्रेरणा करते हैं- शार्दूलविक्रीडितम्…