”क्या जड़ कर्म भी चेतना का बिगाड़ कर सकता है” हाँ, अवश्य कर सकता है और कर ही रहा है जभी तो आप संसारी हैं अन्यथा सिद्धशिला पर जाकर विराजमान हो जाते, अपने अनंतज्ञान से सारे विश्व को एक समय में देख लेते, अपनी अनंतशक्ति के द्वारा अनंत पदार्थों को एवं उनकी अनंत भूत भावी…
सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के कारण सम्यग्दर्शन किसको, कब और कैसे होता है ? ये तीन बातें ही मुख्यतया ज्ञातव्य हैं। वह भव्य जीव के ही होता है, अभव्य को नहीं। काललब्धि आदि के मिलने पर ही होता है, उसके बिना नहीं और अन्तरंग तथा बहिरंग कारणों से ही होता है बिना कारण के नहीं! हम…
भव्यत्व मार्गणा (सोलहवाँ अधिकार) भव्य और अभव्य का स्वरूप भविया सिद्धी जेसिं, जीवाणं ते हवंति भवसिद्धा। तव्विवरीयाऽभव्वा, संसारादो ण सिज्झंति।।१४६।। भव्या सिद्धिर्येषां जीवानां ते भवन्ति भवसिद्धा:। तद्विपरीता अभव्या: संसारान्न सिध्यन्ति।।१४६।। अर्थ—जिन जीवों की अनंत चतुष्टयरूप सिद्धि होने वाली हो अथवा जो उसकी प्राप्ति के योग्य हों उनको भवसिद्ध कहते हैं। जिनमें इन दोनों में से…
चतुर्थ अधिकार विजय बलभद्र-त्रिपृष्ठ नारायण जैन शासन में नव बलभद्र, नव नारायण एवं नव प्रतिनारायण होते हैं। भगवान श्रेयांसनाथ के तीर्थकाल में प्रथम बलभद्र, नारायण एवं प्रतिनारायण हुए हैं। पुरुरवा भील-इस जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में सीता नदी के उत्तर किनारे पर ‘पुष्कलावती’ नाम का देश है। उसकी ‘पुण्डरीकिणी’ नगरी में एक ‘मधु’ नाम का…
द्वादश चक्रवर्ती भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्ति, कुंथु, अर, सुभौम, पद्म, हरिषेण, जयसेन और ब्रह्मदत्त क्रम से ये बारह चक्रवर्ती सब तीर्थंकरों की प्रत्यक्ष एवं परोक्ष वन्दना मेें आसक्त और अत्यन्त गाढ़ भक्ति से परिपूर्ण थे। भरत चक्रवर्ती ऋषभेश्वर के समक्ष, सगरचक्री अजितेश्वर के समक्ष तथा मघवा और सनत्कुमार ये दो चक्री धर्मनाथ और शान्तिनाथ…
तीर्थंकर अनन्तनाथ धातकीखंडद्वीप के पूर्व मेरू से उत्तर की ओर अरिष्टपुर नगर में पद्मरथ राजा राज्य करता था। किसी दिन उसने स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के समीप जाकर वंदना-भक्ति आदि करके धर्मोपदेश सुना और विरक्त हो दीक्षा ले ली। ग्यारह अंगरूपी सागर का पारगामी होकर तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया। अन्त में सल्लेखना से मरण कर अच्युत…