पहले नरक के इंद्रक बिलों के नाम
पहले नरक के इंद्रक बिलों के नाम सीमंतक, निरय, रौरव, भ्रांत, उद्भ्रांत, संभ्रांत, असम्भ्रांत, विभ्रांत त्रस्त, त्रसित, वक्रान्त, अवक्रान्त और विक्रान्त ये १३ इंद्रक हैं।
पहले नरक के इंद्रक बिलों के नाम सीमंतक, निरय, रौरव, भ्रांत, उद्भ्रांत, संभ्रांत, असम्भ्रांत, विभ्रांत त्रस्त, त्रसित, वक्रान्त, अवक्रान्त और विक्रान्त ये १३ इंद्रक हैं।
नारक बिलों में भेद ये नारकियों के बिल इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक के भेद से तीन प्रकार के हैं। इंद्रक—जो अपने पटल के सब बिलों के बीच में हो वह इन्द्रक कहलाता है। श्रेणीबद्ध—जो बिल चारों दिशाओं और चारों विदिशाओं में पंक्ति से स्थित रहते हैं वे श्रेणीबद्ध हैं। प्रकीर्णक—श्रेणीबद्ध बिलों के बीच में इधर-उधर…
शीत-उष्ण बिलों का प्रमाण पहली, दूसरी, तीसरी व चौथी पृथ्वी के सभी बिल एवं पांचवीं पृथ्वी के चार भागों में से तीन भाग (३/४) प्रमाण बिल अत्यन्त उष्ण होने से वहां रहने वाले जीवों को तीव्र गर्मी की पीड़ा पहुँचाने वाले हैं। पांचवीं पृथ्वी के अवशिष्ट १/४ भाग प्रमाण बिल तथा छठी और सातवीं पृथ्वी…
नरक के बिलों का वर्णन सातों नरकों के बिलों की संख्या चौरासी लाख प्रमाण है- प्रथम पृथ्वी के — ३०,००००० बिल द्वितीय पृथ्वी के — २५,००००० बिल तृतीय पृथ्वी के — १५,००००० बिल चौथी पृथ्वी के — १०,००००० बिल पाँचवी पृथ्वी के — ३,००००० बिल छठी पृथ्वी के — ९९,९९५ बिल एवं सातवीं पृथ्वी के…
सातों पृथ्वियों की मोटाई का प्रमाण रत्नप्रभा — १ लाख ८० हजार योजन शर्कराप्रभा — ३२००० योजन वालुकाप्रभा — २८००० योजन पंकप्रभा — २४००० योजन धूमप्रभा — २०००० योजन तम: प्रभा — १६००० योजन महातम:प्रभा — ८००० योजन ये सातों ही पृथ्वियाँ ऊर्ध्व दिशा को छोड़ शेष ९ दिशाओं में घनोदधि वातवलय से लगी हुई…
इन पृथ्वियों के अन्य नाम घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी ये नाम भी इन सातों ही पृथिवियों के अनादि निधन हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी के ३ भाग हैं-खरभाग, पंकभाग और अब्बहुल भाग। रत्नप्रभा पृथ्वी १ लाख ८० हजार योजन मोटी है। इसमें-खर-भाग १६००० योजन, पंकभाग ८४००० योजन एवं अब्बहुलभाग ८०००० योजन का है।…
अधोलोक का वर्णन अधोलोक में सबसे पहली मध्यलोक से लगती हुई रत्नप्रभा पृथ्वी है। इससे कुछ कम एक राजू नीचे शर्करा प्रभा है। इसी प्रकार से एक-एक राजू नीचे बालुकाप्रभा आदि पृथ्वियां हैं।
सागर का प्रमाण इन दश कोड़ाकोड़ी पल्यों का जो प्रमाण हो उतना पृथक्-पृथक् सागरोपम का प्रमाण होता है। अर्थात् दश कोड़ाकोड़ी व्यवहार पल्यों का एक व्यवहार सागर, दश कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्यों का एक उद्धारसागर, एवं दश कोड़ाकोड़ी अद्धापल्यों का एक ‘अद्धासागर’ होता है। इस ग्रंथ में आगे सर्वत्र यह ध्यान रखना चाहिए कि उत्सेधांगुल से…
पल्य बनाने की प्रक्रिया चार कोस का एक योजन होता है। एक योजन प्रमाण विस्तार गोल गड्ढे का घनफल १९/२४ योजन प्रमाण है। इस १ योजन प्रमाण वाले गड्ढे में मेंढ़ों के रोम के इतने छोटे टुकड़े करके (जिसके पुन: दो टुकड़े न हो सकें) खचाखच भर दें। उसमें जितने रोम हैं उनका प्रमाण-४१३४५२६३०३०८- २०३१७७७४९५१२१९२००००००००००००००००००।…
आत्मांगुल से किन-किन का प्रमाण होता है। झारी, कलश, दर्पण, भेरी, युग, शय्या, शकट, हल, मूसल, शक्ति, तोमर, बाण, नालि, अक्ष, चामर, दुंदुभि, पीठ, छत्र, मनुष्यों के निवास स्थान, नगर और उद्यान आदि का प्रमाण आत्मांगुल से समझना चाहिए।