श्रावक के १२ व्रत पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये बारह व्रत कहलाते हैं। पाँच अणुव्रत का लक्षण बताया जा चुका है। अब यहाँ गुणव्रत और शिक्षाव्रतो को बतलाते हैं। गुणव्रत जो अणुव्रतों को बढ़ाते हैं अथवा उसमें दृढ़ता या मजबूती लाने वाले होते हैं उन्हें गुणव्रत कहते हैं। उनके तीन भेद हैं-दिग्व्रत,…
चतुर्णिकाय देव त्रिशला-माताजी! आज शास्त्र में पढ़ा है कि चतुर्निकाय के देव भगवान की भक्ति में लीन रहते हैं, वे कौन हैं और कहाँ रहते हैं? आर्यिका-पुण्यरूप देवगति नामकर्म के उदय से जो देवपर्याय को प्राप्त करते हैं उन्हें देव कहते हैं। इनके चार भेद हैं-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक। पहली रत्नप्रभा पृथ्वी के तीन…
तीर्थंकर जन्मभूमि विकास की आवश्यकता संसार समुद्र से संसारी प्राणियों को पार करने वाले पवित्र स्थल तीर्थ कहे जाते हैं। वे तीर्थ दो प्रकार के होते हैं-द्रव्य तीर्थ और भावतीर्थ। रत्नत्रयस्वरूप भाव-परिणाम भावतीर्थ तथा महापुरुषों की चरणरज से पावन भूमियाँ द्रव्यतीर्थ हैं। उनमें २४ तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञानकल्याणक स्थल तीर्थक्षेत्र, मोक्षकल्याणक स्थल सिद्धक्षेत्र…
पूजा के चार भेदों में मुनियों को दान देना भी शामिल है प्रोक्ता पूजार्हतामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम्। चतुर्मुखमहःकल्पद्रुमाश्चाष्टाह्निकोऽपि च।।२६।। तत्र नित्यमहो नाम शश्वज्जिनगृहं प्रति। स्वगृहान्नीयमानाऽर्चा गन्धपुष्पाक्षतादिका।।२७।। चैत्यचैत्यालयादीना भक्त्या निर्मापणं च यत्। शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीनां सदार्चनम्।।२८।। या च पूजा मुनीन्द्राणां नित्यादानानुषङ्गिणी। स च नित्यमहो ज्ञेयो यथा शक्त्युपकल्पितः।।२९।। महामुकुटबद्धैश्च क्रियमाणो महामहः। चतुर्मुखः स विज्ञेयःसर्वतोभद्र इत्यपि।।३०।। दत्वा…
हरिवंश पुराण में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों में ही सल्लेखना को कहा है पञ्चधाणुव्रतं प्रोत्तं त्रिविधं च गुणव्रतम्। शिक्षाव्रतं चतुर्भेदं धर्मोऽयं गृहिणां स्मृतः।।४५।। हिंसादेर्देशतो मुक्तिरणुव्रतमुदीरितम्। दिग्देशानर्थदण्डेभ्यो विरतिश्च गुणव्रतम्।।४६।। सामायिकं त्रिसंध्यं तु प्रोषधातिथिपूजनम्। आयुरन्ते च सल्लेखः शिक्षाव्रतमितीरितम्।।४७।। मांसमद्यमधुद्यूतक्षीरिवृक्षफलोज्झनम्। वेश्यावधूरतित्याग इत्यादिनियमो मत:।।४८।। इदमेवेति तत्त्वार्थश्रद्धानं ज्ञानदर्शनम्। शज्रकाङ्क्षाजुगुप्सान्यमतशंसास्तवोज्झनम्।।४९।। तथोपगूहनं मार्गभ्रंशिनां स्थितियोजनम्। हेतवो दृष्टिसंशुद्धे वात्सल्यं च प्रभावना।।५०।।…
जैन धर्म ‘‘कर्मारातीन् जयतीति जिन:’’ जो कर्मरूपी शत्रुओं को जीत लेता है वह ‘‘जिन’’ है। और ‘‘जिनो देवता अस्येति जैन:’’ जिन हैं देवता जिसके वह ‘‘जैन’’ कहलाता है। ‘‘संसार दु:खत: सत्वान् यो उत्तमे सुखे धरतीति धर्म:’’ जो संसार के दु:ख से जीवों को निकाल कर उत्तम सुख में पहुँचता है वह धर्म है। इस प्रकार…
जंबूकुमारस्य जन्म वैराग्यं च (जंबूकुमार जन्म एवं वैराग्य) संस्कृत भाषा में- अस्ति श्रेणिकस्यानुशासने राजगृहे नगरेर्हदास श्रेष्ठी, तस्य धर्मपरायणा भार्या जिनमती। कदाचित् रात्रौ पश्चिमभागे सा जिनमती जम्बूवृक्षादिपंचसुस्वप्नान् अपश्यत्। प्रात: पत्या सार्धं जिनमंदिरे गत्वा त्रिज्ञान- धारिणो मुनेर्मुखारविन्दात् चरमशरीरिण: पुत्रस्य लाभो भविष्यतीति श्रुत्वा संतुष्टौ बभूवतु:। पूर्वोक्तो विद्युन्माली अहमिन्द्रचरो जीव: स्वर्गात् प्रच्युत्य जिनमत्यां गर्भे समागत्य नवमासानंतरं मानुषपर्यायं अलभत। फाल्गुनमासि…
सीता हरण श्रीरामचन्द्र से आज्ञा लेकर दिशाओं की ओर दृष्टि डालते हुए महापराक्रमी लक्ष्मण अवेâले ही उस दण्डक वन के समीप घूम रहे हैं। उसी समय वे विनयी पवन के द्वारा लाई गई दिव्य सुगंधि सूंघते हैं। उसे सूँघते ही वे विचार करने लगते हैं कि यह मनोहर गंध किसकी है? आश्चर्य को प्राप्त हुए…