70. खतौली में सन् १९७६ में माताजी का ससंघ चातुर्मास
जीव का ऊध्र्वगमन स्वभाव है जीव जिस स्थान में सम्पूर्ण कर्मों से छूटता है ठीक उसी स्थान के ऊपर एक समय में ऊध्र्वगमन करके लोक के अग्रभाग में जाकर स्थित हो जाता है। चूँकि यह ऊध्र्वगमन उसका स्वभाव है। शंका – जीव जिस स्थान में कर्मो से छूटा है उसी स्थान पर रह जाता है।…
धर्मोपदेशामृत (पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका ग्रंथ के आधार से विशेषार्थ सहित) -मंगलाचरण- सिद्धों को मैं नित नमूं, स्वात्म सिद्धि के हेतु। अर्हंतों की साधु की, भक्ति भवोदधि सेतु।।१।। ज्ञानसूर्य के नमन से, हृदय कमल खिल जाए। गुण सौरभ की सुरभि से, जन-जन मन महकाय।।२।। पद्मनन्दि मुनिनाथ के, चरण कमल शिर नाय। सूक्तिसुधा टीका करूं , भाषामय सुखदाय।।३।। वंदूं…
मोक्षमार्ग व्यवहार-निश्चय मोक्षमार्ग-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता व्यवहारनय से मोक्ष का कारण है और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयी निज आत्मा निश्चयनय से मोक्ष का कारण है क्योंकि आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्य में रत्नत्रय नहीं रहता है, इस कारण रत्नत्रयमयी आत्मा ही निश्चयनय से मोक्ष का कारण१ है। व्यवहार रत्नत्रय-जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यक्त्व…
द्वादशानुप्रेक्षा (श्री अमृतचन्द्रसूरिविरचित तत्वार्थसार ग्रन्थ से) अनित्यं शरणाभावो भवश्चैकत्वमन्यता । अशौचमास्रवश्चैव संवरो निर्जरा तथा ।।२९।। लोको दुर्लभता बोधे: स्वाख्यातत्वं वृषस्य च । अनुचिन्तनमेतेषामनुप्रेक्षा: प्रर्कीितता: ।।३०।। अर्थ – अनित्यता अशरण संसार एकता अन्यता अशुचिता आस्रव संवर निर्जरा लोक बोधिदुर्लभता धर्म के स्वरूपवर्णन की श्रेष्ठता इन बारह विषयों के बार-बार चिन्तन करने को बारह अनुप्रेक्षा कहते हैं।…
यह सृष्टि अनादि है अनंत है शाश्वत है
भवनवासी दिक्कुमार एवं अग्निकुमार देव (गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी से क्षुल्लक मोतीसागर जी की एक वार्ता) क्षुल्लक मोतीसागर – वंदामि माताजी! श्री ज्ञानमती माताजी – बोधिलाभोऽस्तु! क्षुल्लक मोतीसागर – माताजी! आज आपसे मैं दिक्कुमार एवं अग्निकुमार देवों के विषय में जानकारी चाहता हूँ कृपया बतलाने का कष्ट करें। श्री ज्ञानमती माताजी – वैसे तो…
निर्जरा के स्थान काललब्धि आदि की सहायता से परिणामों की विशुद्धि से वृद्धि को प्राप्त हुआ कोई भव्य, पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्तक जीव क्रम से अध:करण५ आदि सोपान पंक्ति पर चढ़ता हुआ बहुतर कर्मों की निर्जरा करने वाला होता है। १. सर्वप्रथम वही जीव प्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति के निमित्त मिलने पर सम्यग्दृष्टि होता हुआ…
”चारित्र से ही निर्वाण की प्राप्ति” ‘हे भगवन्! मोक्ष की प्राप्ति का कारण क्या है ?’ ‘दर्शन१ ज्ञान है प्रधान जिसमें, ऐसा चारित्र इस जीव को देवेन्द्र, असुरेन्द्र और चक्रवर्ती के वैभव के साथ-साथ निर्वाण को प्राप्त करा देता है।’ ‘तो क्या चारित्र सांसारिक अभ्युदय और नि:श्रेयस इन दोनों फलों को दे सकता है ?’…
रत्नत्रय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय कहते हैं। इन तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है। इसके दो भेद हैं- (१) व्यवहार रत्नत्रय (२) निश्चय रत्नत्रय व्यवहार सम्यग्दर्शन जीवादि तत्त्वों का और सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का २५ दोष रहित श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। (इसका विस्तृत वर्णन तीसरे भाग में आ चुका है।) व्यवहार…