भरत चक्रवती द्वारा बनवाए गए जिनमंदिरों का राजा दशरथ ने जीर्णोद्धार कराया है। ये भरताद्यैर्नृपतिभिरुद्धाः कारितपूर्वा जिनवरवासाः। भङ्गमुपेतान् क्वचिदपि रम्यान् सोऽनयदेतानभिनवभावान्।।१७९।। इन्द्रनुतानां स्वयमपि रम्यान् तीर्थकराणां परमनिवासान्। रत्नसमूहैः स्फूरदुरुमासः संततपूजामघटयदेषः।।१८०।। भरतादि राजाओं ने जो पहले जिनेन्द्र भगवान् के उत्तम मन्दिर बनवाये थे वे यदि कहीं भग्नावस्था को प्राप्त हुए थे तो उन रमणीय मन्दिरों को…
श्रीरामचन्द्र जी ने लंका में स्वर्णमयी हजार खंभों वाले पद्मप्रभ मंदिर के दर्शन किये इस प्रकार सुन्दरी स्त्रियों के मुख—कमलों को विकसित करते हुए वे सब विभीषण के राजभवन में पहुँचे।।६०।। उस समय राम, लक्ष्मण आदि की शुभ—लक्षणों से युक्त जो विभूति थी वह देवों के लिए भी आश्चर्य उत्पन्न करने वाली थी।।६१।। अथानन्तर हाथी…
समयसार के टीकाकार श्री जयसेनस्वामी के अनुसार पहले,दूसरे,तीसरे तीन गुणस्थान में तरतमता से अशुभोपयोग है ,पुनःचौथे ,पाचवें,छठे इन तीन गुनस्थानों में तरतमता से शुभोपयोग है |इसके अनंतर सातवें से लेकर बारहवें इन छ: गुनस्थानों में तरतमता से शुध्दोपयोग हैं,पुनःतेरहवें,चौदहवें गुनस्थान में शुध्दोपयोग का फल हैं|
इसी तथ्य को छहढालाकार ने परीपुष्ट किया हैंअत: वर्तमान में चौथे गुनस्थानमें स्वरूपाचरण चारित्र को घटना किसी भी प्रकार उचित नहीं हैं|
जिनागम नवनीत णमोकार महामंत्र अनादि है, इसके अनेक प्रमाण हैं। श्रीमान् उमास्वामी आचार्य ने कहा है— ये केचनापि सुषमाद्यरका अनन्ता, उत्सर्पिणी-प्रभृतय: प्रययुर्विवत्र्ता:। तेष्वप्ययं परतरं प्रथितं पुरापि, लब्ध्वैनमेव हि गता: शिवमत्र लोका:।।३।। श्लोकार्थ —उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी आदि के जो सुषमा, दु:षमा आदि अनन्तयुग पहले व्यतीत हो चुके हैं, उनमें भी यह णमोकार मंत्र सबसे…
सबसे अधिक अकालमृत्यु पांडव-कौरव व जरासंध तथा श्रीकृष्ण के संग्राम में कुरुक्षेत्र में हुई है। (उत्तरपुराण पृ. ३८२) तत्र वाच्यो मनुष्याणां मृत्योरुत्कृष्टसञ्चय:। कदलीघातजातस्येत्युक्तिमत्तद्रणाङ्गणम्।।१०९।। एवं तुमुलयुद्धेन प्रवृत्ते सङ्गरे चिरम्। सेनयोरन्तकस्यापि सन्तृप्तिःसमजायत।।११०।। विलङ्घितं बलं विष्णोर्बलेन द्विषतां तथा। यथा क्षुद्र सरिद्वारिमहासिन्धुप्लवाम्बुना।।१११।। तदालोक्य हरिः क्रुधो हरिर्वा करिणां कुलम् । सामन्तबलसन्दोहसहितो हन्तुमुद्यतः।।११२।। भास्करस्योदयाद्वान्धकारं शत्रुबलं तदा। विलीनं तन्निरीक्ष्यैत्य जरासन्धोऽन्वितः क्रुधा।।११३।। द्योतिताखिलदिक्चव्रं…