19. कलुषहृदया मानोद्भभ्रान्ता
चैत्यभक्ति अपरनाम जयति भगवान महास्तोत्र (अध्याय १) ‘‘कलुषहृदया मानोद्भ्रान्ता: परस्परवैरिण:। विगतकलुषा: पादौ यस्य प्रपद्य विशष्वसु:।।१।।’’ अमृतर्विषणी टीका— अर्थ— कलुष हृदय वाले, मान से ग्रसित ऐसे परस्पर में जन्मजात वैर रखने वाले पशुगण एवं परस्पर में शत्रुता को प्राप्त ऐसे मनुष्य भी आपके चरणों का आश्रय लेकर कलुष—वैरभाव रहित होकर परस्पर में विश्वास को—प्रीति को प्राप्त…