कर्मबंध के भेद कषाय सहित जीव जो कर्म पुद्गलों को ग्रहण करता है, वह बंध है। इसके चार भेद हैं – प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध। कर्मों का ज्ञानादि के ढकने का स्वभाव होना प्रकृतिबंध है। कर्मों मे आत्मा के साथ रहने की मर्यादा स्थितिबंध है। कर्मोें में तीव्र-मंद आदि फल देने की शक्ति अनुभाग…
टीकाकर्त्री की प्रशस्ति किसी भी ग्रंथकर्ता और गंरथ के परिचय के लिए प्रषस्ति का बहुत महत्व होता है। इसमें ग्रंथ लेखन का अपेक्षित इतिवृत्त, ग्रंथकर्ता का जीवन, तत्कालीन परिस्थिति, द्रव्य क्षेत्र काल भाव आदि का भी समावेष होता है। मुझे स्याद्वाद चन्द्रिका की कर्त्री पू० आर्यिका ज्ञानमती जी द्वारा लिखित प्रषस्ति का आषय यहां प्रस्तुत…
जीवदया परमधर्म है श्री गौतमस्वामी द्वारा रचित जिस यति प्रतिक्रमण का पाठ हम साधुवर्ग हर पन्द्रह दिनों में करते हैं उसमें स्पष्ट कहा है कि- सुदं मे आउस्संतो ! इह खलु समणेण भयवदा महदिमहावीरेण समणाणं पंचमहव्वदाणि सम्मं धम्मं उवदेसिदाणि। तं जहा-पढमे महव्वदे पाणादिवादादो वेरमणं । हे आयुष्मन्त भव्यों ! मैंने (गौतम स्वामी ने) इस भरत…
एक भव को छोड़कर दूसरे भव के ग्रहण करने का नाम गति है। गति के चार भेद हैं-नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति।
आनादिकाल से जीवचारों गतियोंमें भ्रमण कर रहा है
शुभ कर्म करने से देव और मनुष्यगति को प्राप्त करता है|
अशुभ कर्म करने से तिर्यंच और नरकगति को प्राप्त करता है |
उत्तम मार्दव धर्म श्री रइधू कवि ने अपभृंश भाषा में मार्दव धर्म के विषय में कहा है मद्दउ—भाव—मद्दणु माण—णिंकदणु दय—धम्महु मूल जि विमलु।सव्वहं—हययारउ गुण—गण—सारउ तिसहु वउ संजम सहलु।।मद्दउ माण—कसाय—बिहंडणु, मद्दउ पंचिंदिय—मण—दंडणु।मद्दउ धम्मे करुणा—बल्ली, पसरइ चित्त—महीह णवल्ली।।मद्दउ जिणवर—भत्ति पयासइ, मद्दउ कुमइ—पसरूणिण्णासइ।मद्दवेण बहुविणय पवट्टइ—मद्दवेण जणवइरू उहट्टइ।।मद्दवेण परिणाम—विसुद्धी, मद्दवेण विहु लोयहं सिद्धी।मद्दवेण दो—विहु तउ सोहइ, मद्दवेण णरु जितगु…
धातकीखण्ड द्वीप में धातकी वृक्ष के परिवार वृक्षों की संख्या (तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ से) उत्तरदेवकुरूसुं खेत्तेसुं तत्थ धादईरुक्खा। चेट्ठंति य गुणणामो तेण पुढं धादईसंडो।।२६००।। धादइतरूण ताणं परिवारदुमा भवंति एदिंस्स। दीवम्मि पंचलक्खा सट्ठिसहस्साणि चउसयासीदी।।२६०१।। ५६०४८० । पियदंसणो पभासो अहिवइदेवा वसंति तेसु दुवे। सम्मत्तरयणजुत्ता वरभूसणभूसिदायारा।।२६०२।। आदरअणादराणं परिवारादो भवंति एदाणं। दुगुणा परिवारसुरा पुव्वोदिदवण्णणेहिं जुदा।।२६०३।। धातकीखण्ड द्वीप में धातकी वृक्ष…
अभक्ष्य विजय-अभक्ष्य किसे कहते हैं ? संजय-सुनो! हमें जैसा महाराज जी ने बतलाया है, वैसा ही बतलाता हूँ। जो पदार्थ भक्षण करने अर्थात् खाने योग्य नहीं होते हैं उन्हें अभक्ष्य कहते हैं। इनके पाँच भेद हैं-त्रस हिंसाकारक, बहुस्थावर हिंसाकारक, प्रमादकारक, अनिष्ट और अनुपसेव्य। (१) जिस पदार्थ के खाने से त्रस जीवों का घात होता है,…