पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के दीक्षित जीवन के ६९ चातुर्मास (१९५३-२०२१)
पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के दीक्षित जीवन के ६९ चातुर्मास (१९५३-२०२१)
पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के दीक्षित जीवन के ६९ चातुर्मास (१९५३-२०२१)
प्रशस्ति -दोहा- ऋषभदेव से वीर तक, तीर्थंकर चौबीस। मन वच तन से भक्तियुत, नमूँ नमाकर शीश।।१।। कुंदकुंद आम्नाय में, गच्छ सरस्वती मान्य। बलात्कारगण सिद्ध है, उनमें सूरि प्रधान।।२।। सदी बीसवीं के प्रथम, शांतिसागराचार्य। उनके पट्टाचार्य थे, वीरसागराचार्य।।३।। देकर दीक्षा आर्यिका, दिया ज्ञानमती नाम। गुरुवर कृपा प्रसाद से, सार्थ हुआ कुछ नाम।।४।। वीर अब्द पच्चीस सौ,…
न्यायालयों के निर्णय जैनधर्म बहुत प्राचीन धर्म हैं, इसके कुछ प्रमाण सन् १९२७- मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा एयर १९२७ मद्रास २२८ मुकदमे के निर्णय में जैनधर्म को स्वतंत्र, प्राचीन व ईसा से हजारों वर्ष पूर्व का माना। सन् १९३९- मुम्बई उच्च न्यायालय में एयर १९३९ मुम्बई ३७७ मुकदमे के निर्णय में कहा कि जैनधर्म वेदों…
णमोकार महामंत्र- जैनधर्म का अनादिनिधन अपराजित महामंत्र णमोकार मंत्र है। इस महामंत्र का हमेशा जाप्य करते रहना चाहिए। प्रत्येक जैनमंदिर के मुख्यद्वार के ऊपर व शिखर पर बड़े-बड़े अक्षरों में इसे लिखना चाहिए या पत्थर पर उत्कीर्ण कराकर लगा देना चाहिए, जिससे कि दूर से ही ‘यह जैन मंदिर है’ ऐसी पहचान हो जावे। प्रत्येक…
जैन धर्म है जाति नहीं- जैन धर्म है, जाति नहीं है। जाति, गोत्र और धर्म इन तीनों को समझना अति आवश्यक है। वर्तमान में जैनधर्मानुयायियों में चौरासी जातियाँ सुनी जाती हैं। अग्रवाल, पोरवाड़, खंडेलवाल, पद्मावती पुरवाल, परवार, लमेचू, चतुर्थ, पंचम, बघेरवाल,शेतवाल आदि। गोत्रों में प्रत्येक जाति के गोत्र अलग-अलग हैं। जैसे कि अग्रवाल में गोयल,…
पाँच महाव्रत- जो महापुरुष हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँचों पापों का पूर्णरूपेण त्याग कर देते हैं वे महाव्रती कहलाते हैं। वे महामुनि, महासाधु, महर्षि, दिगम्बर मुनि आदि कहलाते हैं।युग की आदि में अयोध्या में भगवान ऋषभदेव जन्मे थे। ये इक्ष्वाकुवंशीय कहलाये थे। इन भगवान ने कल्पवृक्ष के अभाव में प्रजा के लिए…
पाँच अणुव्रत का वर्णन- इस अहिंसा धर्म के पालन हेतु श्रावक-गृहस्थ के लिए पाँच अणुव्रत माने हैं-अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहपरिमाणाणुव्रत। संकल्पपूर्वक-अभिप्रायपूर्वक-जानबूझकर दो इंद्रिय आदि त्रसजीवों को नहीं मारना अहिंसाणुव्रत है।हिंसा के चार भेद हैं-संकल्पी हिंसा, आरंभी हिंसा, उद्योगिनी हिंसा और विरोधिनी हिंसा। अभिप्रायपूर्वक जीवों की हिंसा संकल्पी हिंसा है। गृहस्थाश्रम में चूल्हा जलाना,…
जैनधर्म की व्याख्या- जो कर्म शत्रुओं को जीत लेते हैं वे ‘जिन’ कहलाते हैं। यथा ‘‘कर्मारातीन् जयतीति जिन:’’ तथा ये जिनदेव जिनके आराध्य देव हैं वे ‘‘जैन’’ कहलाते हैं-‘जिनो देवतास्येति जैन:’। धर्म की व्युत्पत्ति है-‘उत्तमे सुखे धरतीति धर्म:’ जो प्राणियों को स्वर्ग-मोक्षरूप उत्तम सुख में ले जाकर धरे-पहुँचावे, वही सर्वोत्तम धर्म है और वह धर्म…
सिंधु सभ्यता में जैनधर्म- सिंधु घाटी की सभ्यता के नाम से प्रसिद्ध ‘हड़प्पा’ एवं ‘मोहनजोदड़ो’ नामक स्थलों पर उत्खनन से प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों का सूक्ष्म अध्ययन कर पुरातत्त्ववेत्ताओं ने सिद्ध कर दिया है कि उस समय श्रमण संस्कृति-जैनसंस्कृति का व्यापक प्रभाव था। जैनों के आराध्य देव की मूर्ति भी उसकी मुद्राओं-सीलों पर उत्कीर्णित मिली हैं।…
जैनधर्म में असंख्यात तीर्थंकर- तिलोयपण्णत्ति में लिखा है कि ‘‘ये अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल अनंत होते रहते हैं। असंख्यातों अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी के बीत जाने पर एक ‘हुण्डावसर्पिणी’ काल आता है।’’२ इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी में चौबीस-चौबीस तीर्थंकर होने से असंख्यातों चौबीसी हो चुकी हैं अत: ‘भगवान महावीर स्वामी जैनधर्म के संस्थापक हैं’ यह कथन कथमपि उचित…