कुन्दकुन्द स्वामी की वंदना
कुन्दकुन्द स्वामी की वंदना -गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी श्रीकुन्दकुन्दयोगीन्द्रं, नौमि भक्त्या विधा मुदा। मन:कुंदप्रसूनं मे, तत्क्षणं प्रस्फुटीभवेत्।।१।।
कुन्दकुन्द स्वामी की वंदना -गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी श्रीकुन्दकुन्दयोगीन्द्रं, नौमि भक्त्या विधा मुदा। मन:कुंदप्रसूनं मे, तत्क्षणं प्रस्फुटीभवेत्।।१।।
णमोकार महामंत्र एवं चत्तारिमंगल पाठ णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।। चत्तारि मंगलं-अरिहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहु मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरिहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहु सरणं पव्वज्जामि, केवलि पण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि। ह्रौं…
प्रशस्ति कुन्दकुन्द के ग्रन्थ नव, चिंतन कर चिरकाल। ‘ज्ञानमती’ गुम्फित करी, कुन्दकुन्द मणिमाल।।१।। पच्चीस सौ सत्याशिवां, चैत्र त्रयोदशि शुद्ध। वीर जनम दिन पूर्ण कीr, यह मणिमाल विशुद्ध।।२।। भविजन पहनो कण्ठ में, इसका अतिशय तेज। पूर्ण ‘ज्ञानमति’ रवि उगे, खिलें स्वगुण पंकेज।।३।। अर्थ—श्रीकुन्दकुन्ददेव के नौ ग्रन्थों का बहुत दिनों तक चिंतन करके ‘‘आर्यिका ज्ञानमती’’ मैंने यह…
वीतराग चारित्र का फल शुद्धोपयोगी मुनि ही केवली बनते हैं— उवओग विसुद्धो जो, विगदावरणंतरायमोहरओ। भूदो सयमेवादा, जादि परं णेयभूदाणं।।१०१।। (प्रवचनसार गाथा-१५) शंभु छन्द— जो महामुनि उपयोग विशुद्धी-पूर्वक ध्यान लगाते हैं। उनके दर्शन-ज्ञानावरणी, अन्तराय-मोह नश जाते हैं।। उस ही क्षण केवलज्ञान प्रगट, होता सर्वज्ञ कहाते हैं। तब ज्ञेय पदार्थों के ज्ञाता, स्वयमेव प्रभो बन जाते हैं।।१०१।।…
वीतराग चारित्र निश्चयचारित्र किनके होता है ? पडिकमणपहुदिकिरियं, कुव्वंतो णिच्छयस्स चारित्तं। तेण दु विरागचरिए, समणो अब्भुट्ठिदो होदि।।६१।। (नियमसार गाथा-१५२) निश्चयनय आश्रय से जो, प्रतिक्रमणादि क्रियाएँ होती हैं। निश्चयचरित्रधारी मुनि के वे, सभी क्रियाएँ होती हैं।। इस हेतु उन्हें ही वीतराग, मुनि की संज्ञा मिल जाती है। श्रेणी में चढ़कर क्षण भर में, अर्हंत अवस्था आती…
मुनिधर्म (सराग चारित्र) बारह अनुप्रेक्षा— अद्धुवमसरणमेगत्त-मण्णसंसारलोगमसुचित्तं। आसवसंवर णिज्जर, धम्मं बोिंह च िंचतेज्जो।।३७।। (द्वादशानुप्रेक्षा गाथा-२) शंभु छन्द— अध्रुव-अशरण-एकत्व और, अन्यत्व तथा संसार-लोक। अशुचित्व तथा आस्रव संवर, निर्जरा-धर्म अरु ज्ञान बोध।। इन द्वादश अनुप्रेक्षाओं का, चिंतन साधू जो करते हैं। उनकी आत्मा में तीव्ररूप, वैराग्यभाव परिणमते हैं।।३७।। अर्थ—अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा,…
श्रावक धर्म अधिकार चारित्र के दो भेद— जिणणाणदिट्ठिसुद्धं, पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं। विदियं संजमचरणं, जिणणाणसदेसियं तं पि।१६।। (चारित्रपाहुड़ गाथा-५) शंभु छन्द— सम्यक्त्वचरण चारित्र प्रथम, श्री जिनवर ने उपदेशा है। जो सम्यग्दर्शन और ज्ञान, से शुद्ध चरित निर्देशा है।। दूजा है संयमचरण चरित जो, सकल-विकल द्वयरूप कहा। जिनज्ञान देशना से विकसित, चरणानुयोग में यही कहा।।१६।। अर्थ—जिनेन्द्रदेव भाषित ज्ञान-दर्शन…
भक्ति अधिकार तीर्थंकर स्तुति— थोस्सामि हं जिणवरे, तित्थयरे केवली अणंतजिणे। णरपवरलोयमहिए, विहुयरयमले महप्पण्णे।।१।। (चौबीस तीर्थंकरभक्ति गाथा-१) शंभु छन्द—श्री जिनवर तीर्थंकर केवलज्ञानी, अर्हत्परमात्मा हैं। जो हैं अनन्तजिन मनुजलोक में, पूज्य परम शुद्धात्मा हैं।। निज कर्म मलों को धो करके, जो महाप्राज्ञ कहलाते हैं। ऐसे जिनवर की स्तुति कर, चरणों में शीश झुकाते हैं।।१।। अर्थ—जो जिनवर—कर्मशत्रु को…