जिन-मुद्रा
जिन-मुद्रा जिनमुद्रान्तरं कृत्वा पादयोश्चतुरङ्गुलम् । ऊर्ध्वजानोरवस्थानं प्रलम्बितभुजद्वयम् ।।८।। अर्थात्-दोनों पैरों का चार अंगुलप्रमाण अन्तर (फासला) रखकर और दोनों भुजाओं को नीचे लटका कर कायोत्सर्ग रूप से खड़ा होना सो जिनमुद्रा है।।८।।
जिन-मुद्रा जिनमुद्रान्तरं कृत्वा पादयोश्चतुरङ्गुलम् । ऊर्ध्वजानोरवस्थानं प्रलम्बितभुजद्वयम् ।।८।। अर्थात्-दोनों पैरों का चार अंगुलप्रमाण अन्तर (फासला) रखकर और दोनों भुजाओं को नीचे लटका कर कायोत्सर्ग रूप से खड़ा होना सो जिनमुद्रा है।।८।।
वन्दनायोग्य-मुद्रा मुद्रा के चार भेद हैं। जिनमुद्रा, योगमुद्रा, वन्दनामुद्रा और मुक्ताशुक्तिमुद्रा । इन चारों मुद्राओं का लक्षण क्रम से कहते हैं।
वन्दनायोग्य स्थान स्थीयते येन तत्स्थानं वन्दनायां द्विधा मतम् । उद्भीभावो निषद्या च तत्प्रयोज्यं यथाबलम्।।७।। अर्थात्-वन्दना करने वाला जिससे खड़ा रहे या बैठे वह स्थान है सो वन्दना में दो प्रकार का माना गया है। एक उद्भीभाव (खड़ा रहना) दूसरा निषद्या (बैठना) । इन दोनों स्थानों में से अपनी शक्ति के अनुसार किसी एक का प्रयोग…
वन्दनायोग्य पद्मासनादि…. पद्मासनं श्रितौ पादौ जंघाभ्यामुत्तराधरे। ते पर्यंकासनं न्यस्तावूर्वोर्वीरासनं क्रमौ।।६।। अर्थात्-दोनों जंघाओं (गोड़ों) से दोनों पैरों के संश्लेष को पद्मासन कहते हैं अर्थात् दाहिने गौड़ के नीचे बायें पैर को करना और बाएँ गोड़ के नीचे दाहिने पैर को करना अथवा बाएँ पैर के ऊपर दाहिने गौड़ को करना और दाहिने पैर के ऊपर वायें…
वन्दनायोग्य-पीठ…. विजन्त्वशब्दमच्छिद्रं सुखस्पर्शमकीलकम् । स्थेयस्तार्णाद्यधिष्ठेयं पीठं विनयवर्धनम् ।।५।। अर्थात्-जो खटमल आदि प्राणियों से रहित हो, चर चर शब्द न करता हो, जिसमें छेद न हो, जिसका स्पर्श सुखोत्पादक हो, जिसमें कील कांटा वगैरह न हो, जो हिलता-डुलता न हो, निश्चल हो ऐसे तृणमय दर्भासन चटाई वगैरह, काष्ठमय-चौकी, तखत आदि, शिलामय-पत्थर की शिला जमीन आदि रूप…
वन्दनायोग्य-प्रदेश विविक्त: प्रासुकस्त्यक्त: संक्लेशक्लेशकारणै:। पुण्यो रम्य: सतां सेव्य: श्रेयो देश: समाधिचित्।।४।। अर्थात्-विविक्त-जिसमें अशिष्ट जन का संचार न हो , जो प्रासुक-सम्मूर्छन जीवों से रहित हो, संक्लेशकरण-रागद्वेष आदि से और क्लेशकारण-परीषहरूप उपसर्ग से रहित हो, पुण्य-वन, भवन,चैत्यालय,पर्वत की गुफा सिद्धक्षेत्रादि रूप हो, रम्य-चित्त को प्रफुल्लित करने वाला हो , मुमुक्षु पुरुषों के सेवन करने योग्य हो…
योग्य-आसन वन्दनासिद्धये यत्र येन चास्ते तदुद्यत:। तद्योग्यासनं देश: पीठं पद्मासनाद्यपि।।३।। अर्थात्-वन्दना की निष्पत्ति के लिये वन्दना करने को उद्युक्त साधु , जिस देश में, जिस पीठ पर और जिन पद्मासनादि आसनों से बैठता है उसे योग्य आसन कहते हैं।।३।।
योग्यकाल….. तिस्रोऽह्नोऽन्त्या निशश्र्चाद्या नाड्यो व्यत्यासिताश्च ता:। मध्याह्नस्य च षट् कालास्त्रयोऽमी नित्यवन्दने।।२।। अर्थात्-नित्यवन्दना के तीन काल हैं। पूर्वाह्नकाल, मध्याह्नकाल और अपराह्न काल। ये तीनों काल छह छह घड़ी के हैं। रात्रि की पीछे की तीन घड़ी और दिन की पहिली तीन घड़ी एवं छह घड़ी पूर्वाह्नवन्दना में उत्कृष्ट काल है । दिन की अन्त की तीन…
कृति-कर्म…. सामायिक अथवा देववन्दना के समय संयतों और देश-संयतों को कृति-कर्म करना चाहिये । पाप कर्मों को छेदने वाले अनुष्ठान को कृति-कर्म कहते हैं अर्थात् जिन क्रियाओं से पाप कर्मों का नाश हो वह कृति-कर्म है। इस कृतिकर्म के सात भेद हैं। यथा- योग्यकालासनस्थानमुद्रावर्तशिरोनति । विनयेन यथाजात: कृतिकर्मामलं भजेत्।।१।। अर्थात्-योग्य काल, योग्यआसन, योग्यमुद्रा, योग्यआवर्त, योग्यशिर…
देववन्दना या सामायिक-विधि: (क्रियाकलाप से) नम: श्रीवीरनाथाय, सम्यग्बोधप्रहेतवे। सामायिकविधिं वक्ष्ये, पूर्वशास्त्रानुसारत:।।१।।