ब्रह्मचर्याष्टक
ब्रह्मचर्याष्टक भवविवर्धनमेव यतो भवेदधिकदु:खकरं चिरमंगिनाम्। इति निजांगनयापि न तन्मतं मतिमतां सुरतं किमतोन्यथा।।१।। अर्थ —जिस मैथुन के करने से संसार की ही वृद्धि होती है तथा जो मैथुन समस्त जीवों को अत्यन्त दु:ख का देने वाला है इसलिये सज्जन पुरुषों ने उसको अपनी स्त्री के साथ करना भी ठीक नहीं माना है, वे सज्जन दूसरी स्त्रियों…