सत्पुरुष :!
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == सत्पुरुष : == दट्ठूण अण्णदोसं, सप्पुरिसो लज्जिओ सयं होइ। —भगवती आराधना : ३७२ सत्पुरुष दूसरे के दोष देखकर स्वयं में लज्जा का अनुभव करता है। (वह कभी उन्हें अपने मुंह से नहीं कह पाता)।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == सत्पुरुष : == दट्ठूण अण्णदोसं, सप्पुरिसो लज्जिओ सयं होइ। —भगवती आराधना : ३७२ सत्पुरुष दूसरे के दोष देखकर स्वयं में लज्जा का अनुभव करता है। (वह कभी उन्हें अपने मुंह से नहीं कह पाता)।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == सम्यक् चारित्र : == सम्यक्त्वरत्नभ्रष्टा, जानन्तो बहुविधानि शास्त्राणि। आराधनाविरहिता, भ्रमन्ति तत्रैव तत्रैव।। —समणसुत्त : २४९ किन्तु सम्यक्त्व रूपी रत्न से शून्य अनेक प्रकार के शास्त्रों के ज्ञाता व्यक्ति भी आराधनाविहीन होने से संसार में अर्थात् नरकादि गतियों में भ्रमण करते रहते हैं। श्रुतज्ञानेऽपि जीवो, वर्तमान: स न प्राप्नोति…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == स्यद्वाद : == सप्तैव भवन्ति भंगा, प्रमाणनयदुर्नयभेदयुक्ता अपि। स्यात् सापेक्षं प्रमाण:, नयेन नया दुर्नया निरपेक्षा:।। —समणसुत्त : ७१६ (अनेकान्तात्मक वस्तु की सापेक्षता के प्रतिपादन में प्रत्येक वाक्य के साथ ‘स्यात्’ लगाकर कथन करना स्याद्वाद का लक्षण है।) इस न्याय में प्रमाण, नय और दुर्नय के भेद से युक्त…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == गुरु : == सं किं गुरु: पिता सुहृदा योऽभ्यसूययाऽर्भं बहुदोषम्, बहुषु वा दोषं प्रकाशयति न शिक्षयति च।। —नीतिवाक्यामृत : ११-५३ वे गुरु, पिता व मित्र निन्दनीय या शत्रु सदृश हैं, जो ईष्र्यावश अपने बहुदोषी शिष्य, पुत्र व मित्र के दोष दूसरों के समक्ष प्रकट करते हैं और उसे…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == तीर्थ : == रत्नत्रयसंयुक्त: जीव: अपि, भवति उत्तमं तीर्थम्। संसारं तरति यत:, रत्नत्रयदिव्यनावा।। —समणसुत्त : ५१४ (वास्तव में) रत्नत्रय से सम्पन्न जीव ही उत्तम तीर्थ (तट) है, क्योंकि वह रत्नत्रयरूपी दिव्य नौका द्वारा संसार—सागर को पार करता है।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == दु:खमुक्ति : == तस्यैष मार्गो गुरुवृद्धसेवा, विवर्जना बालजनस्य दूरात्। स्वाध्यायैकान्तनिवेशना च, सूत्रार्थसंचिन्तनता धृतिश्च।। —समणसुत्त : २९० गुरु तथा वृद्धजनों की सेवा करना, अज्ञानी लोगों के सम्पर्क से दूर रहना, स्वाध्याय करना, एकान्तवास करना, सूत्र और अर्थ का सम्यक् चिन्तन करना तथा धैर्य रखना—(ये दु:खों से मुक्ति के) उपाय…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] [[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == मनुष्य : == मण्णंति जदा णिच्चं मणेण णिउणा जदो दु ये जीवा। मण उक्कडा य जम्हा तम्हा ते माणुसा भणिया।। —पंचसंग्रह : १-६२ वे मनुष्य कहलाते हैं जो मन के द्वारा नित्य ही हेय—उपादेय, तत्त्व—अतत्त्व तथा धर्म—अधर्म का विचार करते हैं, कार्य…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == मोहनीय : == सेनापति निहते, यथा सेना प्रणश्यति। एवं कर्माणि नश्यन्ति, मोहनीये क्षयंगते।। —समणसुत्त : ६१३ जैसे सेनापति के मारे जाने पर सेना नष्ट हो जाती है, वैसे ही एक मोहनीय कर्म के क्षय होने पर समस्त कर्म सहज ही नष्ट हो जाते हैं।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == वीतराग : == यत्सुखं वीतरागस्य मुने: प्रशमपूर्वकम्। न तस्यानन्तभागोऽपि प्राप्यते त्रिदशेश्वरै:।। —ज्ञानार्णव : १९-३ वीतराग मुनि को प्रशम भाव सहित जो सुख प्राप्त होता है, उसका अनन्तवां भाग भी देवेन्द्रों को प्राप्त नहीं होता (अर्थात् इन्द्र के प्राप्त होने वाले सुख से अनंतगुना—अक्षय सुख वीतराग मुनि को प्राप्त…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == श्रम : == इह लोगणिरावेक्खो, अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि। जुत्ताहार—विहारो, रहिदकसाओ हवे समणो।। —प्रवचनसार : ३-२६ जो कषायरहित है, इस लोक में निरपेक्ष है, परलोक में भी अप्रतिबद्ध (अनासक्त) है और विवेकपूर्वक आहार–विहार की चर्या रखता है, वही सच्चा श्रमण है। आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि। —प्रवचनसार : ३-३०…