पर्याप्ति सुदर्शन – गुरुजी! आपने जीवसमास में पर्याप्त-अपर्याप्त बताया है, सो ये क्या है? अध्यापक – हाँ सुनो! जिस प्रकार से घर, घड़ा आदि पदार्थ पूर्ण (पूरे) बने हुए और अपूर्ण (अधूरे) ऐसे दो प्रकार से देखे जाते हैं उसी प्रकार से जीव भी पर्याप्ति नाम कर्म के उदय से पर्याप्त-पूर्ण और अ पर्याप्ति…
चतुर्णिकाय देवत्रिशला – माताजी! आज शास्त्र में पढ़ा है कि [[चतुर्निकाय]] के देव भगवान की भक्ति में लीन रहते हैं, वे कौन हैं और कहाँ रहते हैं? आर्यिका – पुण्यरूप देवगति नामकर्म के उदय से जो देवपर्याय को प्राप्त करते हैं उन्हें [[देव]] कहते हैं। इनके चार भेद हैं-[[भवनवासी]], [[व्यन्तर]], [[ज्योतिष्क]] और [[वैमानिक]]। पहली [[रत्नप्रभा…
षट्काल परिवर्तन संजय – गुरु जी! आपने कहा था कि विदेह में षट्काल परिवर्तन नहीं होता, सो वह क्या है? गुरुजी – सुनो! काल के दो भेद हैं-उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। जिसमें जीवों की आयु, ऊँचाई, भोगोपभोग संपदा और सुख आदि बढ़ते जावें, वह उत्सर्पिणी है और जिसमें घटते जावें, वह अवसर्पिणी है। इन दोनों को…
जम्बूद्वीप और चैत्यालय संजय-गुरु जी! इस जम्बूद्वीप में सुमेरुपर्वत, भोगभूमि, कर्मभूमि और विदेह क्षेत्र ये सब कहाँ-कहाँ हैं? गुरु जी-सुनो! एक लाख योजन विस्तृत जम्बूद्वीप में सबसे बीच में सुमेरुपर्वत है। यह एक लाख चालीस योजन ऊँचा है। पृथ्वी पर दस हजार योजन चौड़ा गोलाकार है। इसमें पृथ्वी पर भद्रसालवन है। उससे ५०० योजन…
रत्नत्रय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय कहते हैं। इन तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है। इसके दो भेद हैं- (१) व्यवहार रत्नत्रय (२) निश्चय रत्नत्रय व्यवहार सम्यग्दर्शन जीवादि तत्त्वों का और सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का २५ दोष रहित श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। (इसका विस्तृत वर्णन तीसरे भाग में आ चुका है।) व्यवहार…
स्याद्वाद और सप्तभंगी स्यात्-कथंचित् रूप से ‘वाद’-कथन करने को स्याद्वाद कहते हैं। यह सर्वथा एकान्त का त्याग करने वाला है और कथंचित् शब्द के अर्थ को कहने वाला है। जैसे जीव कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य है अर्थात् जीव किसी अपेक्षा से (द्रव्यार्थिक नय से) नित्य है और किसी अपेक्षा से (पर्यायार्थिक नय से)…
दान का लक्षण स्व और पर के अनुग्रह के लिए अपना धन आदि वस्तु का देना दान कहलाता है। अर्थात् गृहत्यागी, तपस्वी, चारित्रादि गुणों के भण्डार ऐसे त्यागियों को अपनी शक्ति के अनुसार शुद्ध आहार, औषधि आदि देना दान है। घर के आरंभ से जो पाप उत्पन्न होते हैं, गृहत्यागी साधुओं को आहारदानआदि देने से…