20. नयों का विवेचन
चैत्यभक्ति अपरनाम जयति भगवान महास्तोत्र (अध्याय १) ‘‘परिणतनयस्यांगी—भावाद्विविक्त—विकल्पितं। भवतु भवतस्त्रातृ त्रेधा जिनेन्द्र—वचोऽमृतम्।।२।।’’ अमृतर्विषणी टीका— अर्थ— द्रव्र्यािथक नय को गौणकर पर्यार्यािथक नय की प्रधानता लेकर अङ्ग, पूर्व आदिरूप से रचा गया अथवा पूर्वापर दोष रहित रचा गया ऐसा उत्पाद—व्यय—ध्रौव्यरूप से अथवा अङ्ग—पूर्व, और अङ्ग—बाह्यरूप से तीन प्रकार का जिनेन्द्र का वचनरूप अमृत संसार से रक्षा करे।।२।।…