जैनधर्म और तीर्थंकर परम्परा द्वारा- पं. शिवचरणलाल जैन , मैनपुरी ( उ. प्र. ) तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित जैनधर्म अनादिनिधन धर्म है। संसार में अनंतानंत जीव जन्म मरण के दुखों से सन्तप्त हैं। भव भ्रमण का मूल कारण अनादिकालीन कर्मबन्धन हैै। यह कर्मबन्धन मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचरित्र के कारण संभूत है। जैन मान्यतानुसार जीव, पुदगल, धर्म,…
जैनधर्म का परिचय द्वारा-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती माता जी जैनधर्म की परिभाषा भारत की धरती पर प्राचीन काल से प्रचलित अनेकानेक धर्मों में प्राचीनतम धर्म के रूप में माना जाने वाला जैनधर्म है, जो विशेषरूप से जितेन्द्रियता पर आधारित है। जैनधर्म के प्राचीन मनीषी आचार्यों ने इस धर्म की व्याख्या इस प्रकार की है-‘‘कर्मारातीन् जयतीति जिनः’’,…
जैन धर्म के कुछ जर्मन अध्येता यूरोप में जैन विद्या के अध्येताओं में सर्वप्रथम हरमन याकोबी (१८५०—१९३७) का नाम लिया जायेगा। वे अलब्रेख्त बेबर के शिष्य थे, जिन्होंने सर्वप्रथम मूल रूप में जैन आगमों का अध्ययन किया था। याकोबी ने बराहमिहिर के लघु जातक पर शोध प्रबन्ध लिखकर पी.एच.डी. प्राप्त की। केवल २३ वर्ष की…
जैन धर्म की विशेषताएँ १. जैन धर्म एक धार्मिक पुस्तक, शास्त्र पर निर्भर नहीं है। ‘विवेक ही धर्म है।’ २. जैन धर्म में ज्ञान प्राप्ति सर्वोपरि है और दर्शन मीमांसा धर्माचरण से पहले आवश्यक है। ३. देश, काल और भाव के अनुसार ज्ञान दर्शन से विवेचन कर उचित—अनुचित, अच्छे—बुरे का निर्णय करना और धर्म का…
जैन संस्कृति स्वरूप, समस्या और समाधान प्रमुख रूप से भारतवर्ष में तथा विरल रूप में विश्व के अनेक देशों में जैन समाज निवास करता है। इस समाज की आस्था के प्रमुख केन्द्र जिन अर्थात् जितेन्द्रिय तीर्थंकर एवं अन्य सिद्ध भगवान् हैं। जिन को मानने वाले, जिन के समान बनने की चाह वाले और जिन के…
जैनं जयतु शासनम् -नमोऽस्तु शासनम् – एक अनुचिन्तन —गणिनी ज्ञानमती माताजी मूलाचार ग्रन्थ में टीका में ‘‘नमोऽस्तूनां शासने’’ पद आया है । उसका अर्थ मैंने ऐसा किया है— तित्थस्स—तीर्थस्य शासनस्य । मइलणा—मलिनत्वं नमोस्तूनां शासने एवंभूता: सर्वेऽपीति मिथ्यादृष्ट्यो वदन्ति । ‘‘तीर्थ का अर्थ शासन है । जिनेन्द्रदेव के शासन को ‘नमोऽस्तु शासन’ कहते हैं अर्थात् इसी…