06. द्वादशानुप्रेक्षा (तत्वार्थसार ग्रन्थ से)
द्वादशानुप्रेक्षा (श्री अमृतचन्द्रसूरिविरचित तत्वार्थसार ग्रन्थ से) अनित्यं शरणाभावो भवश्चैकत्वमन्यता । अशौचमास्रवश्चैव संवरो निर्जरा तथा ।।२९।। लोको दुर्लभता बोधे: स्वाख्यातत्वं वृषस्य च । अनुचिन्तनमेतेषामनुप्रेक्षा: प्रर्कीितता: ।।३०।। अर्थ – अनित्यता अशरण संसार एकता अन्यता अशुचिता आस्रव संवर निर्जरा लोक बोधिदुर्लभता धर्म के स्वरूपवर्णन की श्रेष्ठता इन बारह विषयों के बार-बार चिन्तन करने को बारह अनुप्रेक्षा कहते हैं।…