02.1 भगवान ऋषभदेव (प्रथम तीर्थंकर)
परमात्म प्रकाश-एक अध्ययन चार्य श्री योगीन्द्रदेव (१३ वीं शताब्दी में हुए) द्वारा रचित परमात्मप्रकाश ग्रन्थ वास्तव में एक आध्यात्मिक ग्रन्थ होने के साथ ही ज्ञानपिपासुओं के लिए विशेष स्वाध्याय योग्य ग्रन्थ है। उस परमात्मप्रकाश के मंगलाचरण में आचार्यश्री कहते हैं— जे जाया झाणग्गियएँ कम्मकलंक डहेवि। मिच्च णिरंजण णाणमय ते परमप्प णवेवि।।१।। अर्थात् जो भगवान ध्यानरूपी…
मोक्ष प्राप्ति में व्यवहारनय भी उपादेय है व्यवहार नयापेक्षा अध्यवसान आदि भाव जीव हैं ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं। जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा।।४६।। (समयसार) अर्थ-ये सब अध्यवसान आदि भाव हैं वे जीव हैं ऐसा जो श्री जिनेन्द्रदेव ने उपदेश दिया है वह व्यवहार नय का मत है। जो राग द्वेष आदि परिणाम हैं ये कर्म…
शुद्धात्मतत्त्व विवेचन जैसे काष्ठ में अग्नि शक्तिरूप से विद्यमान है अथवा दूध में घी शक्तिरूप से मौजूद है वैसे ही शरीर में विद्यमान आत्मा शक्तिरूप से परमतत्त्व स्वरूप परमात्मा है ऐसा ज्ञान निश्चयनय से होता है। जो भी चारों अनुयोगों के जैनग्रंथ हैं वे द्वादशांग के सारभूत ही हैं उन अनेक ग्रंथों को पढ़कर भी…
पंचास्तिकाय सार द्रव्यानुयोग का स्वरूप जीवाजीवसुतत्त्वे, पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च। द्रव्यानुयोगदीप:, श्रुतविद्यालोकमातनुते।। अर्थ—जो जीव-अजीव तत्त्वों को, पुण्य-पाप को, आस्रव, संवर, बंध और मोक्ष इन सभी तत्त्वों को सही-सही समझाता है; वह दीपक के सदृश द्रव्यों को प्रगट दिखलाने वाला द्रव्यानुयोग है। यह श्रुतज्ञान के प्रकाश में निज और पर का भान कराने वाला है। यह…
सम्यक्त्वचरण एवं संयमचरण चारित्र सम्यक्त्वचरण चारित्र वीतराग सर्वज्ञदेव ने चारित्र के दो भेद किये हैं—सम्यक्त्वचरण चारित्र और संयमचरण चारित्र। इन्हें दर्शनाचार चारित्र और चारित्राचार लक्षण चारित्र भी कहते हैं। आचार्य कहते हैं कि—हे भव्यजीवों! इन दोनों में पहले सम्यक्त्व को विशुद्ध बनाने के लिये उसमें मल को उत्पन्न करने वाले ऐसे शंका आदि दोषों का…
आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामी द्वारा वर्णित ग्यारह महत्त्वपूर्ण स्थान ग्यारह महत्वपूर्ण स्थान (१) आयतन, (२) चैत्यगृह, (३) जिनप्रतिमा, (४) दर्शन, (५) जिनबिंब, (६) जिनमुद्रा, (७) ज्ञान, (८) देव, (९) तीर्थ, (१०) अरहन्त और (११) प्रव्रज्या इन ग्यारह विषयों को बोधप्राभृत में वर्णन किया है। आयतन—जिनमार्ग में जो संयम सहित मुनिरूप है उसे आयतन कहा है…
कर्म एवं कर्मों की विविध अवस्थाएँ प्रत्येक संसारी प्राणी कर्म शृंखला से बद्ध है। जीवों की जितनी भी क्रियायें एवं अवस्थायें हैं उनका कारण कर्म ही है। इन कर्मों का सम्बन्ध जीव के साथ कब से है और क्यों है ? इसका उत्तर यही है—अनादि काल से, जैसे—बीज और वृक्ष के सम्बन्ध में उसकी आदिमान्…
संस्कार, सादगी और संयमाचरण आत्मा पर सुसंस्कार के लिये, उसे पूज्य व मूल्यवान बनाने के लिये ही मन्दिर आदि बने हैं। वहाँ वीतराग को इसी भावना से नमस्कार करते हैं कि उनके जैसे गुण हमारी आत्मा में भी प्रकट हों। आत्मा के संस्कार ही मानव के लिये उपादेय हैं। सुख चाहते हो तो धन सम्पत्ति…
चरणानुयोग का साहित्य और उसकी उपादेयता सकल वाङ्मय द्वादशाङ्ग रूप है। जो प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग इन चार अनुयोगों में विभक्त है। इसमें सबसे प्रथम अङ्ग का नाम आचाराङ्ग है और यह संपूर्ण श्रुतस्कंध का आधारभूत है। गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षाङ्गम्। चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति।। अर्थात् गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति किस प्रकार होती है,…