श्रोता के लक्षण जो हमेशा धर्मश्रवण करने में लगे रहते हैं, विद्वानों ने उन्हें श्रोता माना है। अच्छे और बुरे के भेद से श्रोता अनेक प्रकार के हैं, उनके अच्छे और बुरे भावों के जानने के लिए नीचे लिखे अनुसार दृष्टान्तों की कल्पना की जाती है। स्वर्ग, मोक्ष आदि कल्याणों की अपेक्षा रखकर ही वक्ता…
ग्रंथकर्ता श्री जिनसेन स्वामी (धवलाटीकाकार श्री वीरसेनाचार्य के शिष्य थे) वे अत्यन्त प्रसिद्ध वीरसेन भट्टारक हमें पवित्र करें, जिनकी आत्मा स्वयं पवित्र है, जो कवियों में श्रेष्ठ हैं, जो लोकव्यवहार तथा काव्यस्वरूप के महान् ज्ञाता हैं तथा जिनकी वाणी के सामने औरों की तो बात ही क्या, स्वयं सुरगुरु बृहस्पति की वाणी भी सीमित-अल्प जान…
वक्ता के लक्षण ऊपर कही हुई कथा को कहने वाला आचार्य वही पुरुष हो सकता है, जो सदाचारी हो, स्थिरबुद्धि हो, इन्द्रियों को वश में करने वाला हो, जिनकी सब इन्द्रियाँ समर्थ हों, जिसके अंगोपांग सुन्दर हों, जिसके वचन स्पष्ट परिमार्जित और सबको प्रिय लगने वाले हों, जिसका आशय जिनेन्द्रमतरूपी समुद्र के जल से धुला…
कथा और कथक के लक्षण कथा और कथक के लक्षण छंद बुद्धिमानों को इस कथारम्भ के पहले ही कथा, वक्ता और श्रोताओं के लक्षण अवश्य ही कहना चाहिए। मोक्ष पुरुषार्थ के उपयोगी होने से धर्म, अर्थ तथा काम का कथन करना कथा कहलाती है। जिसमें धर्म का विशेष निरूपण होता है उसे बुद्धिमान् पुरुष सत्कथा…
महापुराण नाम की सार्थकता महापुराण नाम की सार्थकता तीर्थेशामपि चव्रेषां, हलिनामर्धचक्रिणाम्। त्रिषष्टिलक्षणं वक्ष्ये, पुराणं तद्द्विषामपि।।२०।। पुरातनं पुराणं स्यात्, तन्महन्महदाश्रयात्। महद्भिरुपदिष्टत्वात्, महाश्रेयोऽनुशासनात्।।२१।। कविं पुराणमाश्रित्य, प्रसृतत्वात् पुराणता। महत्त्वं स्वमहिम्नैव, तस्येत्यन्यैर्निरुच्यते।।२२।। महापुरुषसंबंधि, महाभ्युदयशासनम्। महापुराणमाम्नात-मत एतन्महर्षिभि:।।२३।। ऋषिप्रणीतमार्षं स्यात्, सूक्तं सूनृतशासनात्। धर्मानुशासनाच्चेदं, धर्मशास्त्रमिति स्मृतम्।।२४।। इतिहास इतीष्टं तद्, इतिह हासीदिति श्रुते:। इतिवृत्तमथैतिह्य-माम्नायं चामनन्ति तत्।।२५।। पुराणमितिहासाख्यं, यत्प्रोवाच गणाधिप:। तत्किलाहमधीर्वक्ष्ये, केवलं भक्तिचोदित:।।२६।। तीर्थंकरों,…
मंगलाचरण श्रीमते सकलज्ञान-साम्राज्यपदमीयुषे। धर्मचक्रभृते भर्त्रे , नम: संसारभीमुषे।।१।। जो अनन्तचतुष्टयरूप अन्तरंग और अष्टप्रातिहार्यरूप बहिरंग लक्ष्मी से सहित हैं, जिन्होंने समस्त पदार्थों को जानने वाले केवलज्ञानरूपी साम्राज्य का पद प्राप्त कर लिया है, जो धर्मचक्र के धारक हैं, लोकत्रय के अधिपति हैं और पंच परावर्तनरूप संसार का भय नष्ट करने वाले हैं, ऐसे श्री अर्हन्तदेव को…
प्रभु का उत्तर इस प्रकार महाराज भरत के द्वारा प्रार्थना किये गये आदिनाथ भगवान् सातिशय गंभीर वाणी से पुराण का अर्थ कहने लगे। उस समय भगवान के मुख से जो वाणी निकल रही थी, वह बड़ा ही आश्चर्य करने वाली थी, क्योंकि उसके निकलते समय न तो तालु, कण्ठ, ओंठ आदि अवयव ही हिलते थे…
चक्री भरत का प्रश्न हे भगवन्! मैं तीर्थंकर आदि महापुरुषों के उस पुण्य को सुनना चाहता हूँ जिसमें सर्वज्ञप्रणीत समस्त धर्मों का संग्रह किया गया हो। हे देव! मुझ पर प्रसन्न होइए, दया कीजिए और कहिए कि आपके समान कितने सर्वज्ञ-तीर्थंकर होंगे ? मेरे समान कितने चक्रवर्ती होंगे ? कितने नारायण, कितने बलभद्र और कितने…