कर्मभूमि की आदि श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम्। जीयात्त्रैलोक्य नाथस्य शासनं जिनशासनम्।। अनंतानंत आकाश के मध्य में ३४३ राजू प्रमाण पुरुषाकार लोकाकाश है जिसमें जीव, पुद्गल, धर्म अधर्म और काल ये द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों सहित अवलोकित किये जाते हैं उसे लोकाकाश कहते हैं उसके परे सर्वत्र अलोकाकाश है। यह लोक अकृत्रिम है, अनादिनिधन है। अधोलोक, तिर्यग्लोक और ऊध्र्वलोक इसके…
कर्मों का विभाजन एवं भेद विज्ञान की लोकात्तरता कर्मों का विभाजन ‘कर्म’ के स्वभाव की अपेक्षा असंख्यात भेद हैं। अनन्तानन्त प्रदेशात्मक स्कन्धों के परिणमन की अपेक्षा कर्म के अनन्त भेद होते हैं। ज्ञानावरणादि अविभागी प्रतिच्छेदों की अपेक्षा भी अनन्त भेद कहे जाते हैं। इस कर्म की बन्ध, उत्कर्षण, संक्रमण, अपकर्षण, उदीरणा, सत्त्व, उदय, उपशम, निधत्ति,…
कर्म, कषाय एवं पेज्जदोष विभक्ति भारत में आस्तिकता की कसौटी इस जीवन की कड़ी को परलोक के जीवन से जोड़ देना है। जो मत इस जीवन का अतीत और भाविजीवन से सम्बन्ध स्थापित कर सके हैं वे ही प्राचीन समय में इस भारतभूमि पर प्रतिष्ठित रह सके हैं। यही कारण है कि चार्वाकमत आत्यन्तिक तर्कबल…
गृहस्थ आश्रम गृहस्थों के छह आर्यकर्म होते हैं-इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप। इज्या- अरहंत भगवान् की पूजा को इज्या कहते हैं। इज्या के पाँच भेद हैं- नित्यमह, चतुर्मुख, कल्पवृक्ष, आष्टान्हिक और ऐन्द्रध्वज। नित्यमह- प्रतिदिन शक्ति के अनुसार अपने घर से गंध, पुष्प, अक्षत आदि ले जाकर अर्हंत की पूजा करना, जिनभवन, जिन प्रतिमा…
कर्म एवं कर्मों की विविध अवस्थायें श्री १०५ आर्यिका आदिमती माताजी ( शिष्या – गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ) प्रत्येक संसारी प्राणी कर्म शृंखला से बद्ध है । जीवों की जितनी भी क्रियायें एवं अवस्थायें हैं उनका कारण कर्म ही है । इन कर्मों का सम्बन्ध जीव के साथ कब से है और क्यों है…
आइये कुछ हटकर सोचें, और स्वयं निर्धारण करें, कि अगले भव में हम क्या बनना चाहते हैं संसारी जीव अनादिकाल से स्वयं के किये हुए कर्मों से बंधा है और अपने जीव के स्वभाव से अलग थलग हो, कर भ्रमण कर रहा है, स्वयं की अज्ञानता के कारण, और नही जानता कि वह कौन—कौन से…