अकिंचन्ता!
== अकिन्चनता : == भूत्वा च निस्संग:, निजभावं निगृह्य सुखदु:खम्। निद्र्वन्द्वेन तु वर्तते, अनगार: तस्याऽऽकिन्चन्यम्।। —समणसुत्त : १०५ जो मुनि सब प्रकार के परिग्रह का त्याग करा नि:संग हो जाता है, अपने सुखद और दु:ख भावों का निग्रह करके निद्र्वन्द्व विचरता है, उसके आिंकचन्य धर्म होता है।