मदिरा :!
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == मदिरा : == विसयरसासवमत्तो, जुत्ताजुत्तं न याणई जीवो। —इन्द्रियपराजय शतक : १० विषयरस रूप मदिरा से मदोन्मत्त बना मनुष्य उचित—अनुचित को नहीं जान सकता है।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == मदिरा : == विसयरसासवमत्तो, जुत्ताजुत्तं न याणई जीवो। —इन्द्रियपराजय शतक : १० विषयरस रूप मदिरा से मदोन्मत्त बना मनुष्य उचित—अनुचित को नहीं जान सकता है।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == भाव : == सुद्धं तु वियाणंतो, सुद्धं चेवप्पयं लहइ जीवो। जाणंतो दु असुद्धं, असुद्धमेवप्पयं लहइ।। —समयसार : १८३ जो अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है वह शुद्ध भाव को प्राप्त करता है और जो अशुद्ध रूप का अनुभव करता है, वह अशुभ भाव को प्राप्त होता है।…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == मंगल : == सत्थादिमज्झ अवसाणएसु जिणतोत्त मंगलुच्चारो। णासइ णिस्सेसाइं विग्घाइं रवि व्व तिमिराइं।। —तिलोयपण्णत्ति : १-३१ शास्त्र के आदि, मध्य और अंत में किया गया जिनस्तोत्र रूप मंगल का उच्चारण सम्पूर्ण विघ्नों को उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जिस प्रकार सूर्य अंधकार को।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == मत-मतांतर : == जावइया वयणपहा, तावइया चेव होंति णयवाया। —सन्मति तर्क प्रकरण : ३/४७ जितने वचन विकल्प हैं, उतने ही नयवाद हैं, और जितने भी नयवाद हैं, संसार में उतने ही पर—समय हैं, अर्थात् मत—मतान्तर हैं।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == भक्ति : == भक्ति: श्रेयाऽनुबंधिनी। —आदिपुराण : ७-२७९ भक्ति कल्याण करने वाली है।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == मन : == त्यक्ता महामोहं, विषयान् ज्ञात्वा भंगुरान् सर्वान्। निर्विषयं कुरुत मन:, येन सुखमुत्तमं लभध्वम्।। —समणसुत्त : ५०८ महामोह को तजकर तथा सब इन्द्रिय—विषयों को क्षणभंगुर जानकर मन को निर्विषय बनाओ, ताकि उत्तम सुख प्राप्त हो।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == भिक्षु : == न सत्कृतिमिच्छति न पूजां, नोऽपि न वन्दनकं कुत: प्रशंसाम्। स संयत: सुव्रतस्तपस्वी, सहित आत्मगवेषक: स भिक्षु:।। —समणसुत्त : २३४ जो सत्कार, पूजा और वन्दना तक नहीं चाहता, वह किसी से प्रशंसा की अपेक्षा कैसे करेगा ? (वास्तव में) जो संयत है, सुव्रती है, तपस्वी है…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == भोगी-अभोगी : == अल्लो सुक्को य दो छूठा, गोलया मट्टियामया। दो वि आवडिया कूडे, जो अल्लो सो विलग्गइ।। एवं लग्गंति दुम्मेहा, जे नरा काम लालसा। विरत्ता उ न लग्गंत्ति, जहा सुक्के अ गोलए।। —इन्द्रिय—पराजय शतक : १९-२० जिस प्रकार गीली और सूखी मिट्टी के दो गोले दीवार पर…
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == पात्रता : == जो जत्तियस्स अत्थस्स भायणं सो उ तेत्तियं लहइ। वुट्ठे वि दोणमेहे न डुंगरे पाणियं ढाइ।। —गाहारयणकोष : २ जो जितने अर्थ का पात्र होता है उसको उतना ही मिलता है (उससे अधिक नहीं), जैसे द्रोण मेघ के बरसने पर भी पहाड़ पर पानी नहीं ठहरता।
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:सूक्तियां ]] == प्रमत्त : == रागद्वेष—प्रमत्त:, इन्द्रियवशग: करोति कर्माणि। आस्रवद्वारैरविगूहितैस्त्रिविधेन करणेन।। —समणसुत्त : ६०१ रागद्वेष से प्रमत्त बना जीव इन्द्रियाधीन होता है। उसके आस्रव—द्वार बराबर खुले रहने के कारण मन—वचन—काय के द्वारा निरन्तर कर्म करता रहता है। भणितं खलु तत् प्रमाणं, प्रत्यक्षपरोक्षभेदाभ्याम्। —समणसुत्त : ६८५ जो ज्ञान वस्तु—स्वभाव के यथार्थ…