ग्यारह स्थान के विमानों की मोटाई वर्ण आदि
ग्यारह स्थान के विमानों की मोटाई वर्ण आदि
ग्यारह स्थान के विमानों की मोटाई वर्ण आदि
विमानों का विस्तार आदि सभी इंद्रक और श्रेणीबद्ध विमान गोल हैं दिव्य रत्नों से निर्मित ध्वजा तोरणों से सुशोभित हैं। इनके अंतराल में विदिशाओं में पुष्पों के सदृश रत्नमय उत्तम प्रकीर्णक विमान हैं। इंद्रकों का विस्तार कह दिया है। सभी श्रेणीबद्ध विमान असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं और असंख्यात योजन प्रमाण ही इनका तिरछा अंतराल…
श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक कहाँ हैं? सब इंद्रकों की चारों दिशाओं में श्रेणीबद्ध और विदिशाओं से प्रकीर्णक विमान हैं। ऋतु नामक प्रथम इंद्रक विमान की चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में ६२ श्रेणीबद्ध विमान हैं। इसके आगे आदित्य नामक ६० वें इंद्रक पर्वत शेष इंद्रकों की प्रत्येक दिशा में एक-एक कम होते गये हैं। अंतिम…
इंद्रक विमानों का विस्तार आदि ६१ इंद्रक विमानों के ऋतु, विमल, चंद्र, आदि उत्तम-उत्तम नाम हैं। अंतिम ६३ वें का नाम सवार्थसिद्धि है। पहला इंद्रक ४५००००० योजन का है और अंतिम इंद्रक १००००० योजन का है दूसरे से लेकर ६० वें तक, मध्यम प्रमाण है अर्थात् प्रथम इंद्रक ४५ लाख का है उसमें ७०९६७-२३/३१ योजन…
इंद्रक प्रस्तार स्वर्गनाम प्रस्तार संख्या प्रस्तार के नाम सौधर्म, ईशान ३१ ऋतु, विमल, चंद्र, वल्गु, वीर, अरुण, नंदन, नलिन, कंचन, रोहित, चंच, मरुत, ऋद्वीश, वैडूर्य, रुचक, रुचिर, अंक, स्फटिक, तपनीय, मेघ, अभ्र,हारिद्र, पद्म, लोहित, वङ्का, नंद्यावर्त, प्रभाकर, पृष्ठक, गज, मित्र और प्रभा। सानत्कुमार युगल ७ अंजन, वनमाल, नाग, गरुड़, लागंल, बलभद्र और चक्र। ब्रह्म युगल…
कल्पातीतों के विमान ३ अधनस्तन ग्रै. के १११ ९ अनुदिश के ९ ३ मध्यम ग्रैवेयक के १०७ ५ अनुत्तर के ५ ३ उपरिम ग्रैवेयक के विमान ९१ ३२०००००±२८०००००±१२०००००±८०००००±४०००००±५००००±४००००±६०००± ७००±१११±१०७±९१±९±५·८४९७०२३ विमान हुये।
बारह कल्पों की विमान संख्या सौधर्म के ३२००००० लावंत, कापिष्ठ के ५०००० ईशान के २८००००० शुक्र, महाशुक्र के ४०००० सानत्कुमार के १२००००० शतार, सहस्रार के ६००० माहेन्द्र के ८००००० आनत, प्राणत ब्रह्म, बह्मोत्तर के ४००००० आरण, अच्युत के ७००
नव अनुदिश एवं पाँच अनुत्तर के नाम अर्चि, अर्चिमालिनी, वैर, वैरोचन, सोम, सोमरूप, अंक, स्फटिक और आदित्य ये ९ अनुदिश हैं। इनमें से आदित्य विमान मध्य में है, अर्चि अर्चिमालिनी आदि ४ क्रम से पूर्वादिक चार दिशाओं में हैं एवं सोम आदि चार विमान विदिशा में हैं। दिशा के श्रेणीबद्ध, विदिशा के प्रकीर्णक कहलाते हैं।…
कल्पातीत देवों के भेद अधस्तन, मध्यम और उपरिम ग्रैवेयक के ३-३ भेद होते हैं अत: ग्रैवेयक ९ हुये। ऐसे ही नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमान हैं।
कल्प के १२ भेद सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, बह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत ये १६ स्वर्ग हैं। इनमें से मध्य के ८ स्वर्गों में से दो-दो स्वर्गों के एक-एक इंंद्र हैं। इसलिये बारह इंद्र होते हैंं। इन बारह इंद्रों की अपेक्षा १२ कल्प होते हैं।