जैन सिद्धांत में न्याय शास्त्र कसौटी के पत्थर सदृश है, जिसके द्वारा सत्य-असत्य की परीक्षा की जाती है।
न्यायसार ग्रंथ में प्रमाण और नयों के द्वारा सत्य को पुष्ट किया गया है और प्रमाण के भेद-प्रभेदों का वर्णन करके मतिज्ञान के 336 भेदों का वर्णन किया गया है
नय के सात भेदों का वर्णन किया गया है और प्रमाणाभास का वर्णन करते हुए जैन धर्म का समर्थन एवं अन्य मतावलंबियों का विशेष खंडन किया गया है
इस ग्रंथ का स्वाध्याय हम सभी के सम्यग्ज्ञान की वृद्धि करें, यही मंगल कामना है
व्रतों को करने की परम्परा अनादि है | शास्त्रों में इसके एक नहीं अनेकों उदाहरण मिलते हैं | उस क्रम में आज भी अनेक भव्य प्राणी व्रतों के माध्यम से अपनी कर्म निर्जरा करते देखे जाते हैं , साथ ही व्रतों के माध्यम से उनके कार्यों की सिद्धि होती देखी जाती है | एक ऐसा ही व्रत है मनोकामना सिद्धि महावीर व्रत , जिसको १०८ मन्त्र सहित लिखकर भगवान महावीर के २६००वें जन्मोत्सव में हमें प्रदान किया परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने ,यह व्रत अत्यंत चमत्कारिक है , मात्र ३-४ व्रतों को करने से ही इसका प्रत्यक्ष चमत्कार प्राप्त हुआ | इस पुस्तक में इस व्रत की पूरी विधि बताई गयी है | यह व्रत करने – कराने वालों के लिए मंगलकारी एवं मनवांछित फल का प्रदाता हो यही मंगल कामना है |
जैन जगत में अनेक महान आत्माएं हुईं हैं जिनके कारण इस देश का मस्तक गौरव से ऊंचा हुआ है | परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी उन्हीं महाआत्माओं में एक हैं जिन्होंने क्वांरी कन्याओं के लिए त्याग का मार्ग प्रशस्त किया और उनकी प्रेरणा से इस त्याग मार्ग में अनेक भव्य प्राणी आत्मकल्याण की ओर उन्मुख हुए , इस क्रम में उनके गृहस्थ जीवन के कई लोग त्याग मार्ग में प्रविष्ट हुए जिनमें से अपने अलौकिक कार्यकलापों से सम्पूर्ण विश्व में अपनी एक अलग छवि बनाने वाले कर्मयोगी के नाम से प्रसिद्ध स्वस्ति श्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी हैं जिन्हें २० नवंबर २०११ भगवान महावीर दीक्षाकल्याणक के अवसर पर जम्बूद्वीप के द्वितीय पीठाधीश के पद पर प्रतिष्ठापित किया गया , उस अवसर पर उनका जहां -जहां अभिनन्दन किया गया , उसका वर्णन , उनके जीवन की चित्रमय झलकियां , समाचार आदि का वर्णन इस गौरविका में निहित है | वस्तुतः महापुरुषों के गुणानुवाद से उनका नहीं अपितु स्वयं का गौरव बढ़ता है |
प्रत्येक धर्म और संप्रदायों में तीर्थों का महत्व है जैनधर्म में भी तीर्थ का विशेष महत्व रहा है जैन धर्म के अनुयायी बड़ी श्रद्धा से तीर्थों की वंदना करते देखे जाते हैं उनका विश्वास है की तीर्थ यात्रा से पुण्य संचय के साथ-साथ परंपरा से मुक्ति की भी प्राप्ति हो जाती है
वैसे तो सभी तीर्थों का प्रभाव अचिंत्य होता है पर तीर्थराज सम्मेदशिखर का अलौकिक महत्व है।
ऐसे पावन तीर्थ सम्मेदशिखर की पूजन करके आप सभी अपने कर्मों की निर्जरा करें, यही मंगल भावना है
भक्तामर स्तोत्र का महात्म्य जैन समाज में काफी समय से प्रचलित है | इसमें मुख्य रूप से प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की स्तुति आचार्य श्री मानतुंग स्वामी ने की है | भक्तामर शब्द स्तोत्र के प्रारम्भ में होने के कारण इसका भक्तामर यह सार्थक नाम पड़ा है | इस स्तोत्र के अनेक चमत्कार प्रत्यक्ष में देखने में आए हैं | वास्तव में जिस स्तोत्र के प्रभाव से श्री मानतुंगाचार्य के कारावास के ४८ ताले टूट गए उससे छोटे – मोटे चमत्कार होना कोई अतिशयोक्ति की बात नहीं है | इस विधान की रचना परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की शिष्या वात्सल्यमूर्ति परम पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिकारत्न श्री चंदनामती माताजी ने ८ अप्रैल १९९१ में मात्र दो दिन में सम्पूर्ण की |
इसमें १-१ मूल संस्कृत श्लोक , नीचे पंडित हेमराज कृत हिन्दी भक्तामर तथा सचित्र भक्तामर रहस्य पुस्तक के आधार से ४८ मन्त्र हैं | अर्घ्य के पश्चात रिद्धि मन्त्र हैं जो गौतम स्वामी रचित हैं , अंत में जाप्य मन्त्र व जयमाला है | इसे मात्र २ घंटे में पूर्ण किया जा सकता है और ४८ दिन लगातार करने से मनवांछित फल की प्राप्ति होती है |