ओज
ओज शरीर में शुक्रनाम की धातु का नाम ओज है । औदारिक शरीर में ओज एक अंजलि प्रमाण है । धवला ग्रन्थ में इसकी परिभाषा बताई है कि – जिस राशि को चार से अवहृत (भाग) करने पर दो रूप शेष रहते है वह बादर युग्म कही जाती है जिसको चार से भाग करने पर…
ओज शरीर में शुक्रनाम की धातु का नाम ओज है । औदारिक शरीर में ओज एक अंजलि प्रमाण है । धवला ग्रन्थ में इसकी परिभाषा बताई है कि – जिस राशि को चार से अवहृत (भाग) करने पर दो रूप शेष रहते है वह बादर युग्म कही जाती है जिसको चार से भाग करने पर…
गतियों की अपेक्षा व अन्य अपेक्षा से जीवों के भेद 3.1 जीवों के भेद (Kinds of Living-beings)- गतियों की अपेक्षा जीवों के ४ भेद हैं-नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देव। यहां इनका संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है। १. नारकी- नरक में रहने वाले जीव नारकी हैं। ये हुण्डक संस्थान वाले, नपुंसक और पंचेन्द्रिय होते हैं।…
ओघालोचना प्रतिक्षण उदित होने वाले कषायोजनित जो अन्तरंग व बाह्म दोष साधक की प्रतीति में आते हैं जीवन सोधन के लिए उनका दूर करना अत्यन्त आवश्यक है इस प्रयोजन की सिद्धि के लिए आलोचना सबसे उत्तम मार्ग है । सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ के अनुसार – गुरू के समक्ष दस दोषों को टाल कर अपने प्रमाद का…
जीव द्रव्य, इन्द्रियों की अपेक्षा भेद २.१ जीव (Jeev or Soul)- जिसमें चेतना गुण है, वह जीव है। जीव का असाधारण लक्षण चेतना है और वह चेतना जानने व देखने रूप है अर्थात् जो देखता है और जानता है, वह जीव है। ज्ञान-दर्शन जीव का गुण या स्वभाव है। कोई जीव बिना ज्ञान के नहीं…
द्रव्य-विवेचन, गुण पर्याय का स्वरूप १.१ द्रव्य का स्वरूप (Nature of Realities)- जैन दर्शन में पदार्थ को सत् कहा गया है। सत् द्रव्य का लक्षण है। यह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षण वाला है। जगत् का प्रत्येक पदार्थ परिणमनशील है। सारा विश्व परिवर्तन की धारा में बहा जा रहा है। जहाँ भी हमारी दृष्टि जाती रही है सब…
मोक्ष तत्त्व ४.१ मोक्ष (Moksha, Liberation)- आत्मा से समस्त कर्मों का पूर्णरूपेण क्षय हो जाना अर्थात् आत्मा का सर्वथा शुद्ध हो जाना मोक्ष तत्त्व है। समस्त कर्मों से रहित आत्मा के स्वाभाविक अनन्त ज्ञान आदि गुण और अव्याबाध सुख रूप अवस्था उत्पन्न होती है। इसी का नाम मोक्ष है। इसके भी दो भेद हैं-भावमोक्ष और…
संवर एवं निर्जरा तत्त्व ३.१ संवरतत्त्व [Samvara (Stoppage) Tattva]- आस्रव का निरोध अर्थात् आते हुए कर्मों का रुक जाना संवर तत्त्व है। दूसरे शब्दों में कर्मों को नहीं आने देना संवर तत्त्व है। जिन कारणों से कर्म का आस्रव होता है, यदि वे कारण दूर कर दिये जावें तो कर्मों का आना रुक जावेगा। यही…