आस्रव व बंध तत्त्व २.१ आस्रव तत्त्व (Asrava Tattva)- आत्मा में कर्मों के आने को आस्रव तत्त्व कहते हैं। जैसे नदी में नाव चलते समय किसी छिद्र में से पानी का नाव में आना। इसी प्रकार मिथ्यादर्शन, राग, द्वेष आदि भावों के कारण आत्मप्रदेशों में हलन चलन होने से कार्मण पुद्गल वर्गणा आत्मा में आती…
तत्त्व का स्वरूप एवं भेद १.१ तत्त्व का स्वरूप (Nature of Real)- मनुष्य के जीवन में जैसे-जैसे समझ विकसित होती जाती है वह जगत् और जीवन के प्रति चिंतनशील होता जाता है। उसके मन में तत्संबंधी अनेक जिज्ञासाएं उभरने लगती हैं। यथा- १. यह जो दृश्य जगत् है वस्तुत: वह क्या है ?२. जीवन में…
ओघ आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा रचित गोम्मटसार जीवकाण्ड की गाथा में आचार्य श्री ने कहा – गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य । उवओगो वि य कमसो बीसं तु परूवणा भणिदा ।। गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग इस प्रकार ये बीस प्ररूपणा पूर्वाचार्यों ने कही हैं । ओघ,…
आसन्न भव्य जो जीव नियम से एक न एक दिन मोक्ष को प्राप्त करेगा वह भव्य जीव है । जिनका मोक्ष निकट है वे आसन्न भव्य जीव है । भव्य जीव दो प्रकार के है १ आसन्न भव्य २ दूरान्दूर भव्य ।
आशीर्वाद देव, शास्त्र, गुरू को नमस्कार प्रणाम करने पर आशीर्वाद प्राप्त होता है । और कर्मों का क्षय होता है । पात्र की दृष्टि से आशीर्वाद दिया जाता है जैसे – उत्तम पात्र – व्रती श्रावकों को समाधिरस्तु ’ आशीर्वाद है । मध्यम पात्र – गृहस्थजनों को ‘सद्धर्म वृद्धिरस्तु’ आशीर्वाद है । जघन्य मनुष्य –…
आबाधा कर्म का बंध हो जाने के पश्चात् वह तुरंत ही उदय में नही आता बल्कि कुछ काल पश्चात् परिपक्व दशा को प्राप्त होकर ही उदय मे आता है । इस काल को आवाधाकाल कहते है । उत्कृष्ट आवाधा में से जघन्य आवाधा को घटा कर जो शेष रहे उसमें एक अंक मिला देने पर…