ऊर्ध्वगति ( मोक्षगति ) ऊपर अर्थात् सिद्ध शिला पर जान ऊर्ध्वगति है ।आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ की दसवीं अध्याय में मोक्षतत्त्व का वर्णन किया है । दसवीं अध्याय के सूत्र ऩ ५ में कर्म के क्षय होने के बाद होने वाला कार्य बताया है-‘‘तदनन्तर मूध्र्वं गच्छत्यालोकान्तात् ।’’ अर्थात् समस्त कर्मों का क्षम होते ही…
कर्म के भेद-प्रभेद एवं प्रत्येक कर्मबंध के कारण कर्म के मूल भेद जैन कर्म-शास्त्र की दृष्टि से कर्म की आठ मूल प्रकृतियाँ हैं, जो प्राणियों के अनुकूल और प्रतिकूल फल प्रदान करती हैं। वे हैं-१. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र, ८. अंतराय। इनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय…
जैनागम १.१ ‘‘द्वादशांग श्रुतज्ञान क्या है ?’’ ‘‘ जिनेन्द्रदेव की दिव्यध्वनि को गणधरदेव धारण करते हैं। पुन: उसे द्वादशांगरूप से गूँथते हैं। अत: भगवान् की वाणी ही द्वादशांग श्रुतज्ञानरूप है। उस श्रुतज्ञान के दो भेद हैं— अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट । इनमें से अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं और अंगबाह्य के चौदह। अंगप्रविष्ट के नाम आचार,…