पंचकल्याणक संबंधी भजन (आर्यिका चंदनामति माता जी द्वारा)
पंचकल्याणक संबंधी भजन (आर्यिका चंदनामति माता जी द्वारा)
पंचकल्याणक संबंधी भजन (आर्यिका चंदनामति माता जी द्वारा)
(श्रुत की प्रमाणता-अप्रमाणता) तात्पर्यवृत्ति-व्यवहार में अविसंवाद यह अनुवृत्ति में चला आ रहा है। आप्त के वचन आदि के निमित्त से होने वाला मतिपूर्वक अर्थज्ञान श्रुत कहलाता है और वह प्रमाण सिद्ध ही है। प्रश्न-किस प्रकार से सिद्ध है ? उत्तर-व्यवहार-त्याग-ग्रहण आदि में अविसंवादी होने से प्रत्यक्षादि ज्ञानों के समान प्रमेय अर्थों को जानने में वह…
(प्रमाणाभास के लक्षण) संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और अदर्शन आदि प्रत्यक्षाभास कहलाते हैं। जो वह नहीं है उसमें ‘वह’ इस प्रकार का परामर्शी ज्ञान स्मृत्याभास है। जो उस सदृश नहीं है उसमें ‘यह उसके सदृश हैं’ और जो वह नहीं है उसमें ‘यह वहीं है’ इत्यादि ज्ञान प्रत्यभिज्ञानाभास हैं। जिसका आपस में संबंध नहीं है ऐसे…
(प्रमाण और प्रमाणाभास) तात्पर्यवृत्ति-‘प्रमाण’ यह अनुवृत्ति में चला आ रहा है। उससे अभिसंबंध करने से अक्षधी आदि में प्रथमान्त विभक्ति करके अर्थ करना चाहिए। यहाँ ‘अर्थवशाद्विभक्तिविपरिणाम:’ इस न्याय से अर्थ के निमित्त से विभक्ति में परिवर्तन हो गया है। इससे इस प्रकार व्याख्यान किया जाता है-अक्षधी, स्मृति, संज्ञा से, चिंता से और आभिनिबोधिक से हानोपादान…
(संशय आदि कथंचित् प्रमाण हैं) तात्पर्यवृत्ति-अक्ष-इंद्रिय और अनिंद्रिय के प्रति जो नियत है वह प्रत्यक्ष ज्ञानमात्र है उसके समान जो आभासित होता है वह प्रत्यक्षाभ-प्रत्यक्षाभास कहलाता है। वह वैâसा है ? तिमिर से उत्पन्न हुआ ज्ञान तैमिरिक है, ऐसे ही और भी शीघ्र भ्रमण आदि ज्ञान होते हैं, वे प्रमाण हैं। वे वैâसे प्रमाण हैं…
चतुर्थ परिच्छेद (प्रमाणाभास का वर्णन) उत्थानिका-इस प्रकार सम्यग्ज्ञान लक्षण प्रमाण, प्रत्यक्ष-परोक्ष भेद, द्रव्य पर्यायात्मक अर्थ विषय और अज्ञाननिवृत्ति आदि फल, इन चारों को प्रतिपादित करके इस समय प्रमाणाभास का निरूपण करते हुए कहते हैं- अन्वयार्थ-(प्रत्यक्षाभं) प्रत्यक्षाभास (तैमिरादिकं) तैमिर आदि ज्ञान (कथंचित्) कथंचित् (प्रमाणं स्यात्) प्रमाण हैं, (यत्) जो ज्ञान (यथा एव) जिस प्रकार से ही…
चतुर्थ परिच्छेद (प्रमाणाभास) एवं सम्यग्ज्ञानलक्षणप्रमाणं प्रत्यक्षपरोक्षभेदं द्रव्यपर्यायात्मकार्थविषयमज्ञाननिवृत्त्यादिफलं च प्रतिपाद्येदानीं प्रमाणाभासं निरूपयन्नाह— प्रत्यक्षाभं कथंचित्स्यात्प्रमाणं तैमिरादिकं।। यद्यथैवाविसंवादि प्रमाणं तत्तथा मतं।।१।। स्याद्भवेत्। किं प्रत्यक्षाभं प्रत्यक्षप्रमाणाभासमित्यर्थ: अक्षमिंद्रियानिंद्रियं प्रति नियतं प्रत्यक्षं ज्ञानमात्रं तदिवाभातीति व्युत्पत्ते:। किंविशिष्टं तैमिरादिकं तिमिरादागतं तैमिरं तदादिर्यस्याशुभ्रमणादेस्तथोक्तं। तत्किं स्यात् प्रमाणं भवति। कथं कथंचित् भावप्रमेयापेक्षया द्रव्यापेक्षया वा न सर्वथा प्रमाणाभासमेव। बहिरर्थाकारविषय एव ज्ञानस्य विसंवादात्। स्वरूपापेक्षया तस्याविसंवादात्। अत्राविनाभावं दर्शयति यदित्यादि-यत्…
(हेतु के भेद-प्रभेद) इसलिए उपलब्धि और अनुपलब्धि के भेद से हेतु के दो भेद हैं। उनमें विधि को साध्य करने में उपलब्धि हेतु के छह भेद हैं और प्रतिषेध को साध्य करने में भी छह भेद हैं। अनुपलब्धि के प्रतिषेध को सिद्ध करने में सात भेद हैं और विधि के सिद्ध करने में तीन भेद…
(अदृश्यानुपलब्धि हेतु की सिद्धि) तात्पर्यवृत्ति-पर-आतुर के जनों के चित्त-चैतन्य आदि शब्द से भूत, ग्रह, व्याधि आदि ग्रहण किये जाते हैं। ये अदृश्य-हम, आपको दिखने योग्य नहीं हैं क्योंकि इनका स्वभाव सूक्ष्म है। ऐसे अदृश्यपने के चैतन्यभूत, ग्रह व्याधि आदि के अभाव को लौकिकजन, आबाल, गोपाल आदि भी जानते हैं पुन: परीक्षकजनों की तो बात ही…
(अविनाभाव के भेद) उस अविनाभाव के दो भेद हैं-सहभाव और क्रमभाव। सहचारी रूप और रस तथा व्यापक वृक्षत्व और शिंशिपात्व साध्य-साधन में सह अविनाभाव होता है। पूर्वचर-उत्तरचररूप रोहिणी के उदय और कृत्तिका के उदय में तथा कार्य-कारणरूप धूम और अग्नि में क्रम अविनाभाव है। भावार्थ-यहाँ पर आचार्य ने अनुमान का लक्षण बतलाते हुए साध्य एवं…