ग्रैवेयक स्वर्ग (Graiveyak Swarg)
ग्रैवेयक स्वर्ग (Graiveyak Swarg) कल्पातीत स्वर्गो का एक भेद- लोक पुरूष के ग्रीवा की तरह ग्रैवेयक है। जो ग्रीवा में स्थित हों वे ग्रैवेयक विमान है। उनके साहचर्य से वहाँ के वहाँ के इन्द्र भी ग्रैवेयक है।
ग्रैवेयक स्वर्ग (Graiveyak Swarg) कल्पातीत स्वर्गो का एक भेद- लोक पुरूष के ग्रीवा की तरह ग्रैवेयक है। जो ग्रीवा में स्थित हों वे ग्रैवेयक विमान है। उनके साहचर्य से वहाँ के वहाँ के इन्द्र भी ग्रैवेयक है।
ग्रहण (Grahan) आहित, आत्मसात् किया गया या परिगृहीत ये एकार्थवाची है। जो यह पूर्व कृत में निर्मित, रूप, रस, गंध, स्पर्श व शब्द को ग्रहण करने वाली, चक्षु रसन घ्राण त्वक और श्रोत्र रूप ग्रहणनि अर्थात् इन्द्रियां है। राहु तो चन्द्रमा को आच्छादे है केतु सूर्य को आच्छादे है, याही का नाम ग्रहण कहिए है।…
ग्रंथ (Granth) गणधर देव से रचा गया द्रव्यश्रुत ग्रन्थ कहा जाता है। व्यहारनय की अपेक्षा क्षेत्रादि ग्रंथ है, क्योंकि अभ्यन्तर ग्रन्थ के कारण हैं और इनका त्याग करना निग्रन्थता है। निश्चयनय की अपेक्षा मिथ्यात्वादिक ग्रन्थ्ज्ञ हैं क्योंकि वे कर्मबन्ध के कारण है और इनका त्याग करना निग्र्रंथता है। जो संसार को गूंथते हैं अर्थात् जो…
गुणस्थान (Gunsthan) दर्शनमोहनीयादि कर्मो के उदय, उपशम, क्षय क्षयोपशम आदि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न होने वाले जिन भावो से जीव लक्षित किये जाते है। उन्हे सर्वदर्शियों ने गुणस्थान इस संज्ञा के निर्देश किया है। गुणस्थान चौदह होते है। मिथ्यात्व सासादन मिश्र अविरत सम्यग्दृष्टि देशविरत प्रमतविरत अप्रमत्तविरत अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतमोह क्षीणमोह सयोगकेवलीजिन अयोगीकेवली जिन।…
गुणव्रत (Gunvrat) गुणों को बढ़ाने के कारण आचार्यगण इन व्रतों को गुणव्रत कहते है। ये तीन व्रत अणुव्रतों के उपकार करने वाले है, इसलिए उन्हे गुणव्रत कहते है। दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदण्डव्रत ये तीन गुणव्रत है। दिग्व्रत, अनर्थद्रव्यडव्रत और भोगोपभोग परिमाण व्रत ये तीनों गुणव्रत कहे जाते है।तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार- जो अणुव्रतों में गुणाकार रूप से…
गुणधर (Gundhar) श्रुतधराचार्यों की परंपरा में सर्वप्रथम आचार्य गुणधर का नाम आता है। गुणधर और धरसेन दोनों ही श्रुत-प्रतिष्ठापक के रूप में प्रसिद्ध है। गुणधर आचार्य धरसेन की अपेक्षा अधिक ज्ञानी थे। गुणधर को पच्चमपूर्वगत पेज्जदोसपाहुड का ज्ञान प्राप्त था और धरसेन को पूर्वगत कम्मपयडिपाहुड का । इतना ही नहीं, किन्तु गुणधर को पेज्जदोसपाहुड के…
पंचास्तिकाय सार द्रव्यानुयोग का स्वरूप जीवाजीवसुतत्त्वे, पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च। द्रव्यानुयोगदीप:, श्रुतविद्यालोकमातनुते।। अर्थ—जो जीव-अजीव तत्त्वों को, पुण्य-पाप को, आस्रव, संवर, बंध और मोक्ष इन सभी तत्त्वों को सही-सही समझाता है; वह दीपक के सदृश द्रव्यों को प्रगट दिखलाने वाला द्रव्यानुयोग है। यह श्रुतज्ञान के प्रकाश में निज और पर का भान कराने वाला है। यह…
सम्यक्त्वचरण एवं संयमचरण चारित्र सम्यक्त्वचरण चारित्र वीतराग सर्वज्ञदेव ने चारित्र के दो भेद किये हैं—सम्यक्त्वचरण चारित्र और संयमचरण चारित्र। इन्हें दर्शनाचार चारित्र और चारित्राचार लक्षण चारित्र भी कहते हैं। आचार्य कहते हैं कि—हे भव्यजीवों! इन दोनों में पहले सम्यक्त्व को विशुद्ध बनाने के लिये उसमें मल को उत्पन्न करने वाले ऐसे शंका आदि दोषों का…
आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामी द्वारा वर्णित ग्यारह महत्त्वपूर्ण स्थान ग्यारह महत्वपूर्ण स्थान (१) आयतन, (२) चैत्यगृह, (३) जिनप्रतिमा, (४) दर्शन, (५) जिनबिंब, (६) जिनमुद्रा, (७) ज्ञान, (८) देव, (९) तीर्थ, (१०) अरहन्त और (११) प्रव्रज्या इन ग्यारह विषयों को बोधप्राभृत में वर्णन किया है। आयतन—जिनमार्ग में जो संयम सहित मुनिरूप है उसे आयतन कहा है…
कर्म एवं कर्मों की विविध अवस्थाएँ प्रत्येक संसारी प्राणी कर्म शृंखला से बद्ध है। जीवों की जितनी भी क्रियायें एवं अवस्थायें हैं उनका कारण कर्म ही है। इन कर्मों का सम्बन्ध जीव के साथ कब से है और क्यों है ? इसका उत्तर यही है—अनादि काल से, जैसे—बीज और वृक्ष के सम्बन्ध में उसकी आदिमान्…