समवसरण में गंधकुटी का वर्णन
समवसरण में गंधकुटी का वर्णन योत्तुङ्गै: शिखरैर्बद्धजयकेतनकोटिभि:। भुजशाखा: प्रसार्येव नमोगानाजुहूषत२।।११।। जिन पर करोड़ों विजयपताकाएँ बँधी हुई हैं ऐसे ऊँचे शिखरों से वह गन्धकुटी ऐसी जान पड़ती थी मानो अपने हाथों को फैलाकर देव और विद्याधरों को ही बुला रही हो।।११।। धनुषां षट्शतीमेषा विस्तीर्णा यावदायता। विष्कम्भात् साधिकोच्छ्राया मानोन्मानप्रमान्विता।।२४।। विद्युन्मालावृत्तम् तस्या मध्ये सैंहं पीठं नानारलव्राताकीर्णम्। मेरो: शृङ्गं…