अग्नि (Agni) संसारी जीव के त्रस और स्थावर ऐसे दो भेद है। दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीव त्रस कहलाते है तथा एकेन्द्रिय जीव को स्थावर जीव कहते है। इन जीवों के केवल शरीर रूप एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है। इन स्थावर जीवों के पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक, ऐसे पांच भेद है…
अक्षर (Akshar) द्रव्य रूप से जिसका विनाश नहीं होता वह अक्षर है। विनाश का अभाव होने से केवलज्ञान अक्षर कहलाता है।
अकलंक (Aklank) राजा लघुहत्व के ज्येष्ठ पुत्र प्रसिद्ध आचार्य अकलंक देव हुए। जिस समय आपने जन्म लिया उस समय बौद्धधर्मानुयायी जिनधर्म के अत्यधिक विद्वेषी थे। अकलंक और निकलंक इन दोनों भाइयों ने धर्म की रक्षा हेतु अनेकों संघर्षो का सामना किय और ब्रह्मचर्य व्रत को अंगीकार कर धर्म की रक्षा में दत्तचित्त रहे। जिसमें भाई…
अंतरात्मा (Antaratma) जिसमें ज्ञान और दर्शन अर्थात् जानने और देखने की शक्ति विद्यमान है वह जीव है उस जीव के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ये तीन भेद है जिसमे अंतरात्मा का लक्षण इस प्रकार है- जो आत्मा और शरीर को भिन्न-भिन्न समझकर आत्मा को ज्ञान-स्वरूप, अविनाशी और शरीर को अचेतन, नाशवान समझता है तथा शरीर…
अंकुरारोपण (Ankuraropan) जौ़ चना गेहूं धान आदि उत्तम धान्यों को विधिपूर्वक मिट्टी के कुंड में रोपण करना (बोना) अंकुरारोपण है। जैनधर्म में पूजा, आराधना, विधि-विधान का विशेष महत्व है। इन्द्रध्वज,कल्पद्रुम आदि महापूजा के प्रारम्भ में अंकुरारोपण किया जाता है इस विधि में प्रतिष्ठातिलक ग्रन्थ के अनुसार यंत्र का अभिषेक करके मिट्टी के आठ कुंडो में…
कर्म सिद्धान्त के अन्तर्गत पर्याप्ति की विवेचना (आधुनिक विज्ञान के संदर्भ में) जैनदर्शन अपने मौलिक चिन्तन के लिए प्रसिद्ध रहा है। कर्म सिद्धान्त निक्षेप, नय, गुणस्थान, स्याद्वाद आदि सिद्धान्त इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। पर्याप्ति भी जैनदर्शन का मौलिक एवं महत्त्वपूर्ण तथ्य है। दार्शनिक दृष्टि से तो इसका महत्त्व है ही, साथ ही यह…
तप से होता है कर्मों का क्षय साधना का लक्ष्य कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करना है। कर्म-क्षय के लिए तप करना आवश्यक है क्योंकि तप के बिना कर्म-क्षय नहीं है और जिस क्रिया से कर्म-क्षय न हो, उसका नाम तप भी नहीं है इसीलिए भट्ट अकलंक देव ने तो कहा ही है कि…
अहिंसा (Ahimsa) जैन धर्म अहिंसा प्रधान है पर अहिंसा का क्षेत्र इतना संकुचित नहीं है जितना कि लोक में समझा जाता है, इसका व्यापार बाहर व भीतर दोनों ओर होता है। बाहर में तो किसी भी छोटे-बड़े जीव को मन,वचन, काय से किसी भी प्रकार हानि-पीड़ा न पहुंचाना, उसका दिल न दुखाना अहिंसा है और…
कर्म सिद्धान्त और सम्यग्दर्शन सम्यग्दर्शन की प्रधानता- जैनदर्शन सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र इन तीनों की युति रूप जीवन को मोक्षमार्ग मानता है और इन तीनों में सम्यग्दर्शन को प्रथमत: स्वीकार किया गया है तथा सम्यग्दर्शन का महत्त्व इस प्रकार कहा गया है- नगर में जिस प्रकार द्वार प्रधान है, मुख में जिस प्रकार चक्षु प्रधान…